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चतुर्थे कृदध्याये षष्ठः क्त्वादिपादः क० त०]
ल्वाद्यो०। अनुबन्धग्रहणमन्तरेण सन्ध्यक्षराणामाकारे भूतपूर्वीकारान्तानामित्याशक्यते। नन् ग्रहधात: किमिति ल्वादौ पठ्यते यस्माद इटा व्यवहितत्वाद गृहीतः इति न प्रयोजनम्। तत्रापि मण्डूकप्लुत्या इडस्तीत्युक्तत्वात्? सत्यम्, उभयपदार्थं तत्र पाठः।एतेन तत्र पाठबलादिटा व्यवहितेऽपि नत्वं स्यादिति देश्यं निरस्तम्, उभयपदेनेव पाठस्य कृतार्थत्वात्।।१३८९।
[समीक्षा
'लून:, लूनवान्' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में नकारादेश किया गया है। एतदर्थ पाणिनि के दो सूत्र हैं- "ल्वादिभ्यः, ओदितश्च' (अ०८।२।४४,४५)। अत: पाणिनीय सूत्रद्वयप्रयुक्त गौरव को छोड़कर अन्य प्रकार की तो उभयत्र समानता ही है।
[विशेष वचन १. केचिद् वृत्तिपाठं मन्यन्ते। तदसङ्गतमित्यपरे (वि०प०)। २. तत्रापि मण्डूकप्लुत्या इडस्तीत्युक्तत्वात् (क०त)। [रूपसिद्धि
१-१३. लूनः, लूनवान्। लू+क्त, क्तवन्तु-सि। जीनः, जीनवान्। ज्या+क्त, क्तवन्तु+सि। रुग्णः , रुग्णवान्। रुजो+क्त, क्तवन्तु+सि। भुनः, भुग्नवान्। भुजो+क्त, क्तवन्तु+सि। सूनः, सूनवान्। सू+क्त, क्तवन्तु+सि। दूनः, दूनवान्। दू+क्त, क्तवन्तु+सि। पूना यवागूः। पू+क्त+आ+सि। 'लूञ्-छेदने' आदि धातुओं से क्त-क्तवन्तु प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से निष्ठा-तकार को नकारादेश तथा विभक्तिकार्य।।१३८९।
१३९०. व्रश्चेः क च [४।६।१०५] [सूत्रार्थ)
'ओ व्रश्चू छेदने' धातु से परवर्ती निष्ठातकार को नकार तथा धातु के अन्त में विद्यमान शकार को ककारादेश होता है।।१३९०।
[दु० वृ०]
व्रश्चेः परस्य निष्ठातकारस्य नकारो भवति कादेशश्चान्ते। व्रश्चेरेव श्रुतत्वात् शोपधस्य व्रश्चेधुंट्यन्तलोपे सति षत्वबाधकं कत्वं स्यात्। वृक्णः, वृक्णवान्।।१३९०।
[समीक्षा
'वृक्णः, वृक्णवान्' शब्दरूपों के सिद्धयर्थ उभयत्र नकार-ककारादेश की व्यवस्था की गयी है। एतदर्थ पाणिनि के दो सूत्र हैं- "ओदितश्च, चो: कुः" (अ०८।२।४४,३०)। इस प्रकार पाणिनीय सूत्रद्वयप्रयुक्त गौरव को छोड़कर अन्य प्रकार की तो सामान्यतया समानता ही है।
[रूपसिद्धि
१-२. वृक्णः , वृक्णवान्। ओ व्रश्नू+क्त, क्तवन्तु+सि। 'व्रञ्चू' धातु से क्तक्तवन्तु प्रत्यय, तकार को नकार, चकार का लोप, शकार को ककार, सम्प्रसारण तथा विभक्तिकार्य।।१३९०।