Book Title: Katantra Vyakaranam Part 04
Author(s): Jankiprasad Dwivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
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परिशिष्टम्-७ श्लोकसूची
क्र०सं० श्लोकाः
पृ० सं० १. अकृतस्य क्रिया चैव प्राप्तेर्बाधनमेव वा।
अधिकार्थविवक्षा च त्रयमेतनिपातनात्।। (दु०टी०) ३९७ २. अग्रेगा उदधिक्राश्च गोषाश्च विषखास्तथा।
श्रियं दधातु राजेन्द्र! तवाब्जासहिता इमे।। (दु०वृ०) २९१ ३. अद्रवं मूर्तिमत् स्वाङ्गं प्राणिस्थमविकारजम्।
अतत्स्थं तत्र दृष्टं च तेन चेत् तत् तथायुतम्।। (दु०वृ०) ८४ ४. अद्विर्वचनमनिट त्वं च सहेर्दी| मिहेरपि ।
ढत्वं च खल्वतन्त्रत्वात् सर्वाणि वचनानि च।। (दु०वृ०) ६१३ ५. अधर्मामृतवन्नञ् विपक्षे वर्तते यतः।।
(क०च०) २ ६. अनन्तश्च समाहारो नदादिषु निगद्यते।
(क०च०) २९९ ७. अनिवार्यो गजैरन्यैः स्वभाव इव देहिनाम्।। (दु०१०) १८१ ८. अनेकार्था हि धातवः।।
(दु०१०) २७७ ९. अप्राधान्यं विधेर्यत्र निषेधस्य प्रधानता।
प्रसज्यप्रतिषेधोऽयं क्रियया सह यत्र नञ्।। (क०च०) २६३ १०. अप्राप्ते: प्रापणं चापि प्राप्तेर्वारणमेव वा। अधिकार्थविवक्षा च त्रयमेतत्रिपातनात्।।
(समीक्षा) १७४ ११. अर्थात् (वाक्यात्) प्रकरणाल्लिङ्गादौचित्याद् देशकालत:।
शब्दार्थास्तु विभज्यन्ते न रूपादेव केवलात्।। (क०च०) २ १२. अलीकं त्वप्रियेऽनृते।।
(वि०प०) ६४२ १३. अविश्रमं यावदिदं शरीरम्।।
(दु०टी०) १० १३. अविश्रमं यावदिदं शरीरं पतत्यवश्यं परिणामदुर्वहम्।।
किमौषधं पृच्छसि मूढ!दुर्मते!निरामयं कृष्णरसायनं पिब।। (वि०प०) ११ १४. अस्ति मत्स्यस्तिमि म शतयोजनविस्तृतः।
तिमिङ्गिलगिलोऽप्यस्ति तगिलोऽप्यस्ति राघवः।। (दु०वृ०-वि०प०) ५१ १५. आकृतिग्रहणा जातिर्लिङ्गानां च न सर्वभाक्।
सकृदाख्यातनिर्माह्या गोत्रं च चरणैः सह।। (दु०वृ०) ३०५

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