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कातन्त्रव्याकरणम् [रूपसिद्धि
१-३. समपर्णः। सम्-अर्द-क-f..। न्यण्णः । नि- अद्-क-सि। व्यपर्णः। वि-अर्द्ध-क्त-सि। 'सम्-नि-वि' उपसर्ग-पूर्वक 'अर्द' धातु से 'क' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से इट् का निषेध, दकार को नकार, नकार को णकार तथा विभक्तिकार्य।।१३८१।
१३८२. सामीप्येऽभेः [४।६।९७] [सूत्रार्थ)
'क्त' प्रत्यय के परे रहते सामीप्य अर्थ की विवक्षा में 'अभि' उपसर्ग-पूर्वक 'अ' धातु से इडागम नहीं होता है।।१३८२।
[दु०वृ०]
अभेः परस्यार्दतेः क्ते नेड् भवति सामीप्येऽर्थे। अभ्यर्णा सेना। सामीप्ये इत्यर्थः। अनतिदूर इत्येके, अभिधानात्।।१३८२।
[वि०प०]
सामीप्ये०। अनीति यत्रातिदूरं नाप्यतिसमीपम्, तत्र सामीप्यशब्दो वर्तते। कथमभिधानादित्यर्थः, तथा च परसूत्रम् “अभेश्चाविदूर्ये' (अ०७।२।२५) इति। आविदूर्यमिति। विदूरमतिदूरम्, ततोऽन्यदविदूरम्, तस्य भाव आविदूर्यमिति तदयुक्तम्, सामीप्यमात्रमभिधीयते। तथा चाभिधानकाण्डे विशेषणेनैव निबद्ध: 'उपकण्ठान्तिकाभ्यर्णसमीपसन्निधिनिकटासन्नम्' इति।। १३८२।
[समीक्षा
'अभ्यर्ण' शब्दरूप के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में इडागम का निषेध किया गया है। पाणिनि का सूत्र है- “अभेश्चाविदूर्ये' (अ०७।२।२५)। अत: उभयत्र समानता ही है।
[विशेष वचन १. अनतिदूर इत्येके, अभिधानात् (दु०वृ०) [रूपसिद्धि
१. अभ्यर्णा, सेना। अभि-अक्त-आ-सि। अभि-उपसर्गपूर्वक 'अर्द' धातु से 'क्त' प्रत्यय, इट का निषेध, दकार को नकार, नकार को प्राकार, स्त्रीलिङ्ग में 'आ' प्रत्यय तथा विभक्तिकार्य।।१३८२।।
१३८३. वा पुष्यमत्वरसंघुषास्वनाम् [४।६।९८] [सूत्रार्थ
'क्त' प्रत्यय के परे रहते 'रुष-अम-त्वर-संघष-आस्वन्' धातुओं से इट् आगम का विकल्प से निषेध होता है।।१३८३।