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कातन्त्रव्याकरणम्
[वि०प०]
दृशो ०। विदेरिति 'विद सत्तायाम्' (३।१०९) इत्यस्याकर्मकत्वान ग्रहणम्, अत: 'विद ज्ञाने' (२।२७) इत्यादयस्त्रयोः गृह्यन्ते। अर्थं कथयन्नाह- यं तमित्यादि। वक्तव्यं व्याख्येयम्। इदमभिधानात् सिद्धमिति।।१२९६।
[क० त०]
दृशो णम्।। ननु साकल्य इति सप्तमी न तु विशेषणे तृतीया, तत् कथं साकल्यविशिष्ट इत्युक्तम्? सत्यम्। साकल्यविशेषणपरिच्छिन्नत्वाद् विशिष्ट इत्युक्तम्। नन् कथं 'कन्यादर्श वरयति' इत्यत्राभीक्ष्ण्यमस्तीति द्विवचनं स्यात्, नैवम्. कन्यापदेनैवावगतत्वात्। तथाहि कन्यापदेनैव यावत् कन्यैवोच्यते साकल्यलक्षणप्रत्ययो गम्यते।।१२९६।
[समीक्षा]
'कन्यादर्शम्' शब्दरूप को सिद्ध करने के लिए जो ‘खमिञ्-णमुल्' प्रत्यय किए गए हैं, उनमें अनुबन्धभेद के अतिरिक्त समानता है, परन्तु कातन्त्रीय सूत्र में केवल 'दृश' धातु पठित है, जबकि 'विद्' धातु से ‘णम्' प्रत्यय का निर्देश वृत्तिकार दुर्गसिंह ने किया है। पाणिनि ने 'विद्' धातु का सूत्र में ही पाठ करके यद्यपि उत्कर्ष सूचित किया है, तथापि कातन्त्र में संक्षेप अभीष्ट होने के कारण उभयत्र प्राय: ‘समानता ही कही जा सकती है। पाणिनि का सूत्र है- "कर्मणि दृशिविदोः साकल्ये'' (अ० ३।४।२९)।
[विशिष्ट वचन] १. इदमभिधानात् सिद्धम् (वि० प०)। [रूपसिद्धि]
१. कन्यादर्श वरयति। कन्या-दृश्-खमिञ्-अम्। यां यां कन्यां पश्यति तां तां सर्वां वरयति। 'कन्या' के उपपद में रहने पर 'दृशिर् प्रेक्षणे' (१।२८९) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'खमिञ्' प्रत्यय, ऋकार को गुण तथा विभक्तिकार्य।। १२९६।
१२९७. यावति बिन्दजीवोः [४।६।१२] [सूत्रार्थ
'यावन्त्' शब्द के उपपद में रहने पर 'विन्द्-जीव्' (५।९;१।१९२) धातुओं से ‘णम्' प्रत्यय होता है।। १२९७।
[दु० वृ०]
यावदित्यनिर्दिष्टार्थवाची। यावदित्युपपदे विन्दतेर्जीवतेश्च णम् भवति। यावद्वेदं भुङ्क्ते। यावद् यावन्तं वा लभते तावत् तावन्तं भुङ्क्ते इत्यर्थः। यावज्जीवमधीते। यावज्जीवति तावदधीते इत्यर्थः।।१२९७। १. विद विचारे (६।२४) । विद वेदनाख्याननिवासेषु (९।१२८)।