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कातन्त्रव्याकरणम्
[वि०प०]
करणे० । वि - द्रुशब्दौ पक्षिवृक्षयोर्यथाक्रमं वर्तते ॥ १२३३।
[समीक्षा]
‘अयोघनः, विघनः, द्रुघण:' शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ कातन्त्रकार ‘अल्' प्रत्यय तथा पाणिनि ‘अप्’ प्रत्यय करते हैं। पाणिनि का सूत्र हैं- "करणेऽयोविद्रुषु" (अ० ३।३।८२) अतः अनुबन्धभेद को छोड़कर अन्य प्रकार की तो उभयत्र समानता ही है। [रूपसिद्धि]
१- ३. अयोघनः । अयस् + हन् - घन् + अल् + सि । अयो हन्यतेऽनेन । विघनः । वि + हन् - घन् + अल् सि । विहन्यतेऽनेन द्रुघणः । द्रु + हन् घन् +अल् + सि द्रुर्हन्यतेऽनेन । 'अयस् -वि-द्रु' के उपपद में रहने पर 'हन्' धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'अल्’ प्रत्यय 'घन् ' आदेश, नकार को णकार तथा विभक्तिकार्य ॥१२३३।
१२३४. परौ डः [४।५।६२]
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[ सूत्रार्थ]
करण अर्थ में ‘परि' के उपपद में रहने पर 'हन् हिंसागत्योः ' (२।४) धातु से 'ड' प्रत्यय तथा हन् को 'घन् आदेश होता है । १२३४।
[दु०वृ० ]
परावुपपदे हन्तेर्डो भवति करणे घनिरादेशश्च । परि हन्यतेऽनेनेति परिघः। लत्वेपलिघः ।। १२३४। [समीक्षा]
'परिघः' शब्द की सिद्धि कातन्त्रकार 'ड' प्रत्यय - घन् ' आदेश से करते हैं, जब कि पाणिनि ने इसकी सिद्धि 'अप् ' प्रत्यय - 'घ' आदेश से की है । प्रत्यय - आदेश के भिन्न भिन्न होने पर भी फल की दृष्टि से प्रायः उभयत्र समानता ही है । पाणिनि का सूत्र है – “परौ घः” (अ० ३।३।८४) ।
[रूपसिद्धि]
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१- २. परिघः । परि + हन्- घन् + ड+ सि । पलिघः । परि + हन् घन् + ड+सि । परि हन्यतेऽनेन। ‘परि' उपसर्ग के उपपद में रहने पर 'हन्' धातु से 'ड' प्रत्यय - 'घन्' आदेश, 'ड्' अनुबन्ध के बल से 'अन्' का लोप, रेफ को लत्व तथा विभक्तिकार्य ।। १२३४। १२३५. नौ निमिते [४।५।६३]
[सूत्रार्थ]
तुल्य अर्थ में 'नि' उपसर्ग-पूर्वक 'हन्' धातु से 'ड' प्रत्यय तथा 'हन्' को 'घन्' आदेश होता है ।।१२३५।