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चतुर्थे कृदध्याये पञ्चमो घञादिपादः
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[क० च०]
उद०। ननु घापवादोऽयं घञ्। ततश्चास्याभावपक्षे घेनैव प्रत्युदाहरणं योग्यमिति चेत्, न। घञि घे वा विशेषो नास्ति इत्युदकवर्जनं व्यर्थमित्याहघे त्विति।।१२७२।
[समीक्षा
'उदक' शब्द की सिद्धि दोनों ही व्याकरणों में घञ्-प्रत्ययान्त निपातन से की गई है। पाणिनि का सूत्र है- "उदकोऽनुदके'' (अ०३।३।१२३)। अत: उभयत्र समानता ही है।
[रूपसिद्धि]
१-२. उदङ्कः। उद् + अन्च् + घञ् + सि। ऊर्ध्वमञ्चन्त्यनेन। घृतोदङ्कः। घृत + ' उद् + अन्च् + घञ् + सि। 'उद्' उपसर्ग-पूर्वक 'अन्च्' धातु से 'घञ्' प्रत्यय, चकार को ककार, नकार को अनुस्वार, अनुस्वार को ङकार तथा विभक्तिकार्य।।१२७२।
१२७३. जालमानायः [४।५।१०१] [सूत्रार्थ जाल अर्थ में ‘आनाय:' शब्द निपातन से सिद्ध होता है।।१२७३। [दु० वृ०]
'आनायः' इति निपात्यते जालञ्चेत् । आनीयन्तेऽनेनेति आनायो मत्स्यानाम् । आखन्यतेऽनेनेति आखनः, घोऽपि दृश्यते। आखान इति घञपि। आख इति "अन्यतोऽपि च" (४।३।४९) इति डः। करणेऽपि आखरः, आखनिकः, आखनिकवकः इति। डर - इक - इकवका औणादिका इति।।१२७३।
[समीक्षा]
जाल के अर्थ में ‘आनाय:' शब्द घञ्-प्रत्ययान्त निपातन से दोनों ही आचार्यों ने सिद्ध किया है। पाणिनि का सूत्र है -- “जालमानायः'' (अ०३।३।१२४)। अत: उभयत्र समानता ही है।
[रूपसिद्धि]
१. आनायः। आङ् + नी + घञ् + सि। आनीयन्तेऽनेन। 'आङ्' पूर्वक 'नी' धातु से ‘घञ्' प्रत्यय, ईकार को गुण, आय आदेश तथा विभक्तिकार्य।।१२७३। १२७४. ईषदुस्सुषु कृच्छ्राकृच्छ्रार्थेषु खल् [४।५।१०२]
[सूत्रार्थ]
भाव - कर्मवाच्य में दुःख-सुख अर्थों में 'ईषद् - दुस् - सु' के उपपद में रहने पर धातु से 'खल्' प्रत्यय होता है।।१२७४।
[दु० वृ०] कृच्छ्रे दुःखं दुसोऽर्थः। अकृच्छ्रे सुखमितरयोरर्थ:। एषूपपदेषु कृच्छ्राकृच्छ्रार्थेषु