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चतुर्थे कृत्प्रत्ययाध्याये चतुर्थः क्वन्सुपादः "संपृचानु ------ विविच ------ मुषाभ्याहनश्च, वो कषलसकत्थस्रम्भः'' (अ० ३।२।१४२, १४३)। वस्तुत: 'वि' के उपपद में रहने पर 'विच' धातु का भी पाट एक ही सूत्र में किया जाना चाहिए । इस दृष्टि से कातन्त्रकार का सूत्रपाठ सरलताबोधक कहा जा सकता है।
[रूपसिद्धि]
१. विवेकी। वि - विच् + घिणिन् + सि । 'वि' उपसर्ग के उपपद में रहने पर 'विचिर् पृथग्भावे' (६।५) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'घिणिन्' प्रत्यय, गुण, चकार को ककार तथा विभक्तिकार्य ।
२ - ५. विकत्थी । वि + कत्थ + घिणिन् + सि । विस्रन्भी । वि - सन्भ+ घिणिन् + सि । विकाषी । वि + कष् + घिणिन् + सि । विलाषी । वि+ लष् + घिणिन् + सि । प्रक्रिया प्राय: पूर्ववत् ।।११२४।
११२५. प्रे द्रुमथवदवसलपाम् [४।४।२५] [सूत्रार्थ]
ताच्छील्य आदि अर्थों में 'प्र' उपसर्ग के उपपद में रहने पर 'द्रु - मथ - वद - वस - लप' धातुओं से ‘घिणिन् ' प्रत्यय होता है ।।११२५।
[दु० वृ०]
'प्रे' उपपदे एभ्यो घिणिन् भवति तच्छीलादिषु । प्रद्रावी, प्रमाथी, प्रवादी । 'वस निवासे' (१।६१४) एव - प्रवासी, प्रलापी ।।११२५।
[दु० टी०]
प्रे०। 'वस निवासे' (१।६१४) इति, न 'वस आच्छादने' (२।४७) इत्यस्य ग्रहणम् , सविकरणैः साहचर्यादिति । वपिं केचित् पठन्ति, तेषां 'प्रवापी' ||११२५।
[वि० प०]]
प्रे०। वस निवासार्थ एव न तु आच्छादनाथोंऽदादिः, सविकरणैः साहचर्यात् । आच्छादने प्रवासीत्यपि केचित् ।।११२५।
[समीक्षा]
'प्रमाथी, प्रवासी' आदि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही आचार्यों ने उक्त के अनुसार व्यवस्था की है । पाणिनि ने 'सृ' इस एक धातु का अधिक पाठ किया है - "प्रे लपसृद्रुमथवदवस:' (अ० ३।२।१४५)। अत: प्राय: उभयत्र समानता ही है ।।११२५।
[रूपसिद्धि]
१. प्रद्रावी । प्र + द्रु + घिणिन् + सि । 'प्र' उपसर्गपूर्वक 'द्रु गतौ' (१।२७९) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'घिणिन् ' प्रत्यय, वृद्धि, आव्-आदेश तथा विभक्तिकार्य ।