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चतुर्थे कृदध्याये पञ्चमो घादिपादः
४३५ २-३. निष्पावौ। निर् । पू - घञ् • औ। अवक्षायः। अव + क्षि + घञ् - सि। प्रक्रिया पूर्ववत् ।।११७७।
११७८. इङाभ्यां च [४।५।६] [सूत्रार्थ]
सज्ञा के गम्यमान होने पर कर्तृभिन्न कारक तथा भाव अर्थ में धातु से 'घञ्' प्रत्यय होता है।। ११७८।
[दु० वृ०]
इङ: आकारान्ताच्च धातोर्घ ञ् भवति भावेऽकर्तरि च कारके संज्ञायामित्यविशेषेऽयमधिकारो वेदितव्यः। अलोऽपवादः। अध्ययनम् अधीयते वा अध्यायः। उपेत्याधीयते यस्माद् उपाध्यायः, उपाध्याया, उपाध्यायी। इङो घञ् नदादौ विभाषयेति। आकारान्ताच्च-दायः, धायः।।११७८।
[दु० टी०]
इङा। इङोऽपादाने स्त्रियाम्पसङ्ख्यानं कर्तव्यमित्याह-उपाध्यायेति। नदादिपाठबलात् स्त्रियां क्तिर्न भवतीत्यर्थः। उपाध्याया। स्वयमध्यापयित्री ब्रह्मवादिनीत्युच्यते। पुंसः आख्याभूतात्तु नाम्न इत्यनेन उपाध्यायी। उपाध्यायस्य भार्येत्युच्यते, न तु ब्रह्मवादिनीति।।११७८।
[वि० प०]
इङा०। परिमाण इति न वर्तते पूर्वेण सिद्धत्वात् । विवरणलाघवार्थमाह-भाव इत्यादि।।११७८।
[क० च०]
इङा०। उपाध्यायेत्यादि। एतेन इङोऽपादाने स्त्रियामपसंख्यानमिति दर्शितम्, नदादिपाठबलादेव क्तिप्रत्ययस्य प्रतिषेधः सिद्धः। उपेत्याधीयते यस्या इति विगृह्य घञ् स्वयं व्याख्यात्रीयमुच्यते। यदा तूपाध्यायस्य भार्येत्यर्थो विवक्ष्यते तदा नित्यमुपाध्यायीत्येव भवति।। ११७८।
[समीक्षा
'अध्याय:' शब्द के सिद्ध्यर्थ दोनों ही आचार्य 'घञ्' प्रत्यय करते हैं। पाणिनि का सूत्र है - "इङश्च'' (अ० ३।३।२०)। परन्तु आकारान्त 'दा' आदि धातुओं से 'दाय:, धाय:' आदि शब्दों के सिद्ध्यर्थ कातन्त्रकार ने 'घञ्' प्रत्यय तथा पाणिनि ने 'ण' प्रत्यय किया है। पाणिनि का सूत्र है- "श्याव्याधासुसंस्वतीणवसावहलिहश्लिषश्वसश्च'' (अ०३।१।१४१)। इस प्रकार 'इङ्' निर्देश में समानता होने पर भी आकारान्त धातुओं के निर्देश में प्रत्ययभिन्नता है। फल की दृष्टि से इस अंश में भी समानता ही समझनी चाहिए।