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चतुर्थे कृदध्याये पञ्चमो घजादिपादः
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[रूपसिद्धि]
१. उत्तरपरिग्राहः। परि + ग्रह् + घञ् + सि। 'परि' के उपपद में रहने पर ‘ग्रह उपादाने' (८।१४) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'घञ्' प्रत्यय, इज्वद्भाव, उपधादीर्घ तथा विभक्तिकार्य।।११९९।
१२००. वाऽवे वर्षप्रतिबन्धे [४।५।२८] [सूत्रार्थ]
वृष्टि-प्रतिबन्ध अर्थ में 'अव' उपसर्ग के उपपद में रहने पर 'ग्रह' धातु से वैकल्पिक ‘घञ्' प्रत्यय होता है।।१२००।
[दु० वृ०]
अव उपपदे आहेर्घञ् भवति वा वर्षप्रतिबन्धे गम्यमाने। अवग्राहो वर्षस्य अवग्रहो वा।।१२००।
[समीक्षा]
'अवग्राहः, अवग्रह:' शब्दों के सिदतों ही आचार्यों ने वैकल्पिक 'घञ्' प्रत्यय का विधान किया है। पाणिनि का सूत्र है-“अवे ग्रहों वर्षप्रतिबन्धे" (अ०३।३।५१)। अत: उभयत्र पूर्ण समानता ही है।
[रूपसिद्धि]
१. अवग्राहो वर्षस्य अवग्रहो का अव + ग्रह + य + सिा 'अव' उपसर्ग के उपपद में रहने पर 'ग्रह उपादाने' (८।१४) धात् से प्रकृत सूत्र द्वारा वैकल्पिक 'घञ्' प्रत्यय, इज्वद्भाव, उपधादीर्घ तथा विभक्तिकार्य। पक्ष में 'अल्'. प्रत्यय होने पर 'अवग्रहः' शब्दरूप सिद्ध होता है।।१२००।
१२०१. प्रे रश्मौ [४।५।२९].. [सूत्रार्थ]
'रश्मि' अर्थ में 'प्र' के उपपद में रहने पर ‘ग्रह' धातु से वैकल्पिक ‘घञ्' प्रत्यय होता है।।१२०१।
[दु० वृ०] प्र उपपदे रश्मावर्थे ग्रहेर्घञ् भवति वा। प्रग्राहः, प्रग्रहः। रश्मिरिह रज्जुरुच्यते।।१२०१। [क० च०] प्रे०। अभिधानाद् रश्मिरिह रज्जुरुच्यते न किरण. इति।।१२०१। [समीक्षा]
'प्रग्राहः, प्रग्रहः' शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में वैकल्पिक 'घत्र' प्रत्यय का विधान किया गया है। पाणिनि का सूत्र है- “रश्मौ च' (अ०३।३।५३)। अत: उभयत्र समानता ही है।