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कातन्त्रव्याकरणम्
(अ०३।२।६९)। अत: भिन्न भिन्न प्रत्ययों के विहित होने पर भी समानता ही कही जाएगी।
[रूपसिद्धि]
१. क्रव्यात् । क्रव्य + अद् + क्विप् + सि। क्रव्यम् = पक्वम् अत्ति। 'क्रव्य' शब्द के पूर्वपद में रहने पर 'अद भक्षणे' (२।१) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'क्विप्' प्रत्यय, सर्वापहारी लोप, समानलक्षण दीर्घ, लिङ्गसञ्जा, सि-प्रत्यय, सि-लोप तथा दकार को तकारादेश।।१०७७।।
१०७८. ऋत्विग् - दधृक् - स्रग् -
दिगुष्णिहश्च [४।३।७३] [सूत्रार्थ
'ऋत्विक, दधृक्, स्रक्, दिक्, उष्णिक्' इन क्विप् - प्रत्ययान्त पाँच शब्दों की निपातन से सिद्धि होती है।।१०७८।
[दु० वृ०]
एते क्विबन्ता निपात्यन्ते। ऋतो यजीति ऋत्विक्। रूढित एव धृषो द्विवचनम् - दधृक्। सृजेर्ऋत: परोऽत्, कर्मणि च क्विए । सृजति तामिति स्रक। दिशेः कर्मणि च क्विप् । दिशति तामिति दिक्। ऊर्ध्वं स्निह्यति उष्णिक्। उदो दलोपः, षत्वं च, गत्वं तु दृगादित्वात् ।।१०७८।
[समीक्षा]
'ऋत्विक, स्रक्' इत्यादि शब्दों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही आचार्यों ने प्राय: समान सूत्र बनाए हैं। पाणिनि ने 'अञ्च्, युज, क्रुञ्च्' इन धातुओं का अधिक पाठ किया है। उनका सूत्र है - "ऋत्विग्दधृदिगुष्णिगञ्चयुजिक्रुञ्चां च' (अ०३।२।५९)। इन तीन शब्दों की अधिकता को छोड़कर अन्य तो उभयत्र समानता ही है । 'क्विप्' हो चाहे 'क्विन् 'दोनों का ही सर्चापहारी लोप होता है, अत: भिन्नता नहीं कही जा सकती है ।
[रूपसिद्धि]
१. ऋत्विक् । ऋतु+ यज् + क्विप् + सि। ऋतौ यजति । ऋतु शब्द के उपपद में रहने पर 'यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेष' (१/१६८) धातु से क्विप् प्रत्यय, सर्वापहारी लोप, यकार को सम्प्रसारण, उकार को वकार तथा विभक्तिकार्य ।
२. दधृक् । धृष्+ क्विप् + सि । 'जि धृषा प्रागल्भ्ये' (४।१८) अथवा “धृषप्रहसने ' ९/२८९) धातु से क्विप् प्रत्यय, सर्वापहारी लोप, रूढिवशात् ‘धृष् ' को द्वित्व, अभ्यासकार्य, लिङ्गसंज्ञा तथा विभक्तिकार्य ।
३. स्रक् । सृज् + क्विप् + सि । सृजति ताम् । 'सृज विसर्गे' (३।११६) धातु से क्विप् प्रत्यय, सर्वापहारी लोप, रूढिवश (निपातन से ) धातुघटित ऋकार के बाद अकार, ऋकार को रकार तथा विभक्तिकार्य ।