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चतुर्थे कृत्प्रत्ययाध्याये तृतीयः कर्मादिपादः २९५ ३. सुधीवा। सु + धा + क्वनिप् + सि। 'सु' उपसर्गपूर्वक ‘ड धाञ् धारणपोषणयोः' (२।८५) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'क्वनिप्' प्रत्यय, “दामागायति०' (३।४।२९) से आकार को ईकार तथा विभक्तिकार्य।
४. सुपीवा। सु + पा + क्वनिप् + सि। 'सु' उपसर्गपूर्वक ‘पा पाने' (१।२६४) धातु से क्वनिप् प्रत्यय आदि कार्य पूर्ववत्।
५. भूरिदावा। भूरि + दा + वनिप् + सि। 'भूरि' के उपपद में रहने पर 'डु दाञ् दाने' (२।८४) धातु से 'वनिप्' प्रत्यय तथा विभक्तिकार्य।
६. घृतपावा। घृत + पा + वनिप् + सि। 'घृत' शब्द के उपपद में रहने पर 'पा पाने' (१।२६४) धातु से 'वनिप्' प्रत्यय आदि कार्य पूर्ववत्।
७. कीलालपाः। कीलाल + पा + विच् + सि। कीलालं पिबति। ‘कीलाल' शब्द के उपपद में रहने पर ‘पा पाने' (१।२६४) धातु से 'विच्' प्रत्यय एवं अन्य प्रक्रिया पूर्ववत्।।१०७१।
१०७२. अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते [४।३।६७] [सूत्रार्थ]
आकारान्त भिन्न धातुओं से भी ‘मन् - क्वनिप् - वनिप् - विच्' प्रत्यय होते हैं।।१०७२।
[दु० वृ०]
अन्येभ्योऽपि धातुभ्य एते प्रत्यया दृश्यन्ते। मन् - सुशर्मा। क्वनिप् - प्रातरित्वा। वनिप् - विजावा। विच् - 'रिश रुश हिंसायाम्' (५।५५) - रेट, रोट्। दृशिग्रहणं प्रयोगानुसारार्थम्।।१०७२।
[वि० प०]
अन्ये०। प्रातरित्वेति। प्रातर् - पूर्व 'इण् गतौ' (२।१३)। "तोऽन्तश्च" (४।१।३०)। विजावेति। "विड्वनोरा" (४।१।७०) इति।।१०७२।
[क० च०]
अन्ये०। विजावा इति। 'जन जनने' (२।८०)। 'इवि व्याप्तौ' (१।२०३) इत्यस्य विपूर्वस्य ईदनुबन्धत्वान्नकारागमे “य्वोर्व्यञ्जने'' (४।१।३५) इति यलोप:! "विड्वनोरा" (४।१।७०) इति नकारस्यात्वे इकारस्य यत्वे च विजावेति अन्तस्थायकारवान् स्यात् ।।१०७२।
[समीक्षा]
'सुशर्मा, प्रातरित्वा' आदि प्रयोगों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही आचार्यों ने प्राय: समान विधान किया है। पाणिनीय व्याकरण में तीन प्रत्ययों का ही ग्रहण सूत्र द्वारा होने के कारण 'विच्' प्रत्यय की पूर्ति वृत्तिकार ने की है। पाणिनि का सूत्र है - "अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते'' (अ०३।२।७५)। अत: प्राय: उभयत्र समानता ही है।