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चतुर्थे कृत्प्रत्ययाध्याये तृतीयः कर्मादिपादः
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[समीक्षा]
'पुष्पाहरः, फलाहरः' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में 'अच्' प्रत्यय का विधान किया गया है । पाणिनि का सूत्र है "आङि ताच्छील्ये" (अ० ३।२।११) | अतः उभयत्र समानता ही है ।
[विशेष वचन ]
१. फलनिरपेक्षा प्रवृत्तिस्ताच्छील्यम् (दु० वृ० ) ।
२. प्रयोजनाभावेऽपि प्रवृत्तिर्दृश्यते । यथा गच्छतां जनानां तृणादिस्पर्शः (क० च० ) ।
[रूपसिद्धि]
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आङ्
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१. पुष्पाहरो विद्याधरः । पुष्प हृ + अच् + सि । पुष्पाण्याहर्तुं शीलमस्य । 'पुष्पाणि' इस कर्म के उपपद में रहने पर 'आङ्' उपसर्गपूर्वक 'हृञ् हरणे' (१।५९६) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'अच्' प्रत्यय, धातुघटित ऋकार को गुणादेश तथा विभक्तिकार्य ॥१०१७।
१०१८. अर्हश्च [४ । ३ । १३]
[सूत्रार्थ]
कर्मकारक के उपपद में रहने पर 'अर्ह पूजायाम् ' (१।२५०) धातु से 'अच्’ प्रत्यय होता है || १०१८।
[दु० वृ०]
ताच्छील्यम् आङ् चेति न स्मर्यते । कर्मण्युपपदे अर्हतेरज् भवति । पूजार्हा स्त्री ।।१०१८।
[समीक्षा]
'पूजार्हा, गन्धार्हा, मालार्हा' आदि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में 'अच्' प्रत्यय का विधान किया गया है । पाणिनि का सूत्र है "अर्हः” (अ० ३।२।१२) । अतः उभयत्र समानता ही है ।
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[रूपसिद्धि]
१. पूजार्हा स्त्री । पूजा + अर्ह + अच् + आ +
सि । पूजामर्हति । ‘पूजाम्' इस कर्म कारक के उपपद में रहने पर 'अर्ह पूजायाम् ' (१।२५०) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'अच्' प्रत्यय, स्त्रीलिङ्ग में 'आ' प्रत्यय, समानलक्षण दीर्घ तथा विभक्तिकार्य ॥ १०१८ | १०१९. धृञः प्रहरणे चादण्डसूत्रयोः [ ४ । ३ । १४] [ सूत्रार्थ]
'दण्ड-सूत्र' कर्म को छोड़कर प्रहरण-वाचक कर्म के उपपद में रहने पर 'धृञ् धारणे' (१।५९९) धातु से 'अच्' प्रत्यय होता है ॥ १०१९।
[दु० वृ०]
दण्डसूत्रवर्जिते प्रहरणवाचके कर्मण्युपपदे धृञोऽज् भवति । वज्रं धरतीति वज्रधरः ।