________________
चतुर्थे कृत्प्रत्ययाध्याये द्वितीयो धातुपादः
२०३ [दु० वृ०]
अमेह सहार्थे। अमापूर्वाद् वसतेय॑णि कालाधिकरणे दीर्घाभावो निपात्यते वा। सह वसतोऽस्यां चन्द्रार्कावित्यमावस्या, अमावास्या तिथि:। यल्लक्षणेनानुत्पत्रं तत् सर्वं निपातनात् सिद्धम्।।९८४।
[दु० टी०] अमा०। अमाशब्दोऽयमव्ययः। केचिद् ह्रस्वमेव पक्षे निपातयन्ति।।९८४। [समीक्षा
'अमावस्या-अमावास्या' इन दो रूपों के सिद्धयर्थ दोनों ही व्याकरणों में अपनी-अपनी प्रक्रिया के अनुसार निपातनविधि अपनाई गई है । कातन्त्रकार निपातन से दीर्घ का अभाव विकल्प से मानते हैं, जबकि पाणिनि ने निपातन से वृद्ध्यभाव को स्वीकार किया है । उनका सूत्र है - "अमावस्यदन्यतरस्याम्” (अ० ३।१।१२२) । इस प्रकार दीर्घाभाव-वृद्ध्यभावरूप प्रक्रियाभेद होने पर भी फल की दृष्टि से उभयत्र समानता ही है ।
[विशेष वचन] १. केचिद् ह्रस्वमेव पक्षे निपातयन्ति (दु० टी०) । [रूपसिद्धि]
१. अमावस्या, अमावास्या। अमा + वस् + घ्यण् + आ + सि । अमा = सह चन्द्रार्को वसतोऽस्याम् । 'अमा' इस अव्यय पद के उपपद में रहने पर 'वस निवासे' (१६१४) धातु से "ऋवर्णव्यञ्जनान्ताद् घ्यण्' (४।२।३५) सूत्र द्वारा 'घ्यण' प्रत्यय, 'घ्-ण' अनुबन्धों का प्रयोगाभाव, “सिद्धिरिज्वद् ज्णानुबन्धे” (४।१।१) से इज्वद्भाव, "अस्योपधाया दी| वृद्धिर्नामिनामिनिचट्सु” (३।६।५) से प्राप्त उपधादीर्घ का प्रकृत सूत्र से वैकल्पिक अभाव । अत: दीर्घाभावपक्ष में 'अमावस्या' तथा दीर्घपक्ष में 'अमावास्या' रूप सिद्ध होता है ।।९८४।
९८५. ते कृत्याः [४।२।४६] [सूत्रार्थ]
इससे पूर्व में 'तव्य, अनीय, क्या , घ्यण' तथा 'य' ये पाँच प्रत्यय भाव तथा कर्म अर्थ में विहित किए गए हैं, इन पाँच प्रत्ययों की ‘कृत्य' संज्ञा होती है ।।९८५।
[दु० वृ०]
ते तव्यादयः कृत्यसञ्ज्ञका वेदितव्याः । कृत्यप्रदेशा: - "भावकर्मणोः कृत्यक्त-खलाः " (४।६।४७) इत्येवमादयः ।।९८५।
[क० च०]
ते० । अथ तद्ग्रहणं किमर्थम्, ‘कृत्याः' इत्युक्तेऽपि बहुवचनात् तव्यादीनां भविष्यति, नैवम्। बहुवचनस्यानन्तरत्रिकमादाय चरितार्थत्वात् क्यबादीनामेव स्यादिति तद्ग्रहणम् ।।९८५।