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कातन्त्रव्याकरणम्
२. भ्राष्ट्रापकर्ष धाना भक्षयति, भ्राष्ट्रादपकर्षम् । यहाँ भी प्रकृत सूत्र द्वारा 'भ्राष्ट्रात्' इस उपपद के साथ वैकल्पिक समास तथा प्राग्भाव । उपपदसंज्ञा होने के बाद पहले उसका प्राग्भाव प्रवृत्त होता है, इसके अनन्तर वैकल्पिक समास ।।९४५।
९४६. कृत् [४।२।७] [सूत्रार्थ
यहाँ से ‘कृत्' का अधिकार प्रारम्भ होता है । इसके अनन्तर धातुविहित प्रत्ययों की ‘कृत्' संज्ञा होती है । फलत: यह सूत्र सज्ञाधिकारसूत्र है = अधिकार होने के साथ सज्ञासूत्र भी है ।।९४६।
[दु० वृ०]
अधिकारोऽयं साध्यैरैव सम्बध्यते, प्रथमान्तत्वात्। तेन वक्ष्यमाणाः प्रत्ययाः कृत्संज्ञका वेदितव्याः । कर्तरि कृत: - पाचकः, पक्ता । एवमन्येऽपि ।।९४६।
[क० च०]
कृत् । अधिकारो द्विविधः - स्वार्थ: परार्थश्च । अयं तु केवलं परार्थाधिकारो लिङ्गार्थस्य साध्यत्वात् साध्यशब्दो न प्रथमान्त एवोच्यते । अत एव साध्यविभक्तिः प्रथमा, सिद्धविभक्तिस्तु द्वितीयादिरिति ।।९४६।
[समीक्षा]
धातु से होने वाले त्यादिवर्जित प्रत्ययों की कृत् संज्ञा दोनों व्याकरणों में की गई है । कातन्त्रकार ने अधिकारपूर्वव, यह संज्ञा की है, जब कि पाणिनीय व्याकरण में इसे अधिकार न मानकर केवल सज्ञा ही घोषित किया गया है । उनका सूत्र है – “कृदतिङ्' (अ० ३।१।९३)।
'अर्थप्रतीतिं करोति' इस व्युत्पत्ति के आधार पर ‘कृत्' संज्ञा को अन्वर्थ माना जाता है । कृत्यसंज्ञक 'तव्य-अनीय' आदि प्रत्ययों को भी छत्रिन्याय से 'कृत्' स्वीकार कर लिया जाता है । प्रक्रियासर्वस्वकार नारायणभट्ट ने इस विषय में कहा भी है -
कर्तरि क्विपि कृच्छब्दो येषां मध्ये हि दृश्यते । छत्रिन्यायात् कृतस्ते स्युरेवं कृत्यसमाख्यया ।।
(प्र० स० - स० खं०, पृ० ८९)। प्राचीन आचार्यों ने इस सञ्ज्ञा को स्वीकार किया है - गोभिलगृह्यसूत्र - कृतं नाम दद्यात् (२।८।१४)।
निरुक्त - अथापि भाषिकेभ्यो धातुभ्यो नैगमाः कृतो भाष्यन्ते-दमूना: क्षेत्रसाधा इति (२।२)।
गोपथब्राह्मण - कृदन्तमर्थवत् प्रातिपदिकम् (१।१।२६) ।