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कातन्त्रव्याकरणम्
[समीक्षा]
भाव तथा कर्म अर्थ में 'कर्तव्यम्, करणीयम्, एधितव्यम्, एधनीयम्' आदि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ ‘तव्य-अनीय' प्रत्ययों की आवश्यकता होती है । इनका विधान दोनों व्याकरणों में किया गया है । पाणिनि का सूत्र है - "तव्यत्तव्यानीयरः" (अ०३।१।९६) । यह ज्ञातव्य है कि तित् स्वर के विधानार्थ पाणिनि ने दो प्रत्यय किए हैं – 'तव्यत्' तथा 'तव्य' । पाणिनीय व्याकरण के अनुसार 'तव्यत्' प्रत्ययान्त शब्द में “तित् स्वरितम्' (अ०६।१।१८५) से स्वरित स्वर प्रवृत्त होता है, 'तव्य' प्रत्ययान्त में नहीं । फलतः पाणिनि को तीन प्रत्यय करने पड़ते हैं, जब कि स्वरितविधान की आवश्यकता न होने से कातन्त्र में दो ही प्रत्यय किए गए हैं । चन्द्रगोमी ने चान्द्रव्याकरण में स्वरितविधान आवश्यक होने पर भी केवल 'तव्य' ही प्रत्यय करके उसमें स्वरित स्वर का विधान विकल्प से निर्धारित किया है।
[विशेष वचन] १. वास्तव्य इति वसे: कर्तरि तव्यो दीर्घश्च रूढित्वात् (दु० वृ०)। २. कृत्संज्ञकावित्यधिकारसम्बन्धाविर्भावार्थं मन्दधियां सुखप्रतिपत्त्यर्थम् __ (दु० टी०)। ३. वृत्तौ कृत्सङ्घकाविति यदुक्तं तत् कृदधिकारस्योत्तरत्राविर्भावार्थम् (क० च०)। ४. कृदभिहितो भावो द्रव्यवत् प्रकाशते (क० च०) । [रूपसिद्धि]
१. कर्तव्यम् । कृ + तव्य + सि । 'डु कृञ् करणे' (७७) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा ‘तव्य' प्रत्यय, 'ऋ' को गुण तथा विभक्तिकार्य ।
२. करणीयम् । कृ + अनीय + सि । 'कृ' धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा ‘अनीय' प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत् ।।९४८।।
९४९. स्वराद् यः [४।२।१०] [सूत्रार्थ स्वर वर्णान्त धातु से 'य' प्रत्यय होता है ।।९४९। [दु० वृ०] स्वरान्ताद् धातोर्यो भवति । चेयम्, भव्यम् । स्वरादिति सुखार्थमेव ।।९४९। [दु० टी०]
स्वरा०। ननु ऋवर्णव्यञ्जनान्ताद् घ्यणं वक्ष्यति, पारिशेष्यात् स्वरान्ताद् यप्रत्यय उत्सर्गो भविष्यतीत्याह-स्वरादिति। भूतपूर्वस्वरान्तप्रतिपत्त्यर्थं वा। लव्यमिति । द्विविधः संस्कारः शब्दानां बुद्ध्या वचनेन च । तत्र धातुमुच्चार्य सन्निहितं निमित्तं बुद्ध्या