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कातन्त्रव्याकरणम्
[समीक्षा
'अपिगृह्यम्, प्रतिगृह्यम्' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में 'क्यप्' प्रत्यय का विधान किया गया है। पाणिनि का सूत्र है- “प्रत्यपिभ्यां ग्रहेश्छन्दसि'' (अ०३।१।११८)। अन्तर यह है कि पाणिनि को छन्दस् = वेद में क्यपप्रत्ययान्त शब्दरूप अभिमत हैं और लौकिक संस्कृत में 'प्रतिग्राह्यम्, अपिग्राह्यम्' शब्दरूप। परन्तु कातन्त्रकार इन्हें छान्दस प्रयोग नहीं मानते। उनके विचार से दोनों ही प्रकार के रूप लौकिक संस्कृत में साधु मान्य हैं। अत: वे क्यपप्रत्यय का विकल्प से विधान करते हैं। फलत: कातन्त्रीय दृष्टिकोण को अधिक विशद कहा जा सकता है।
[विशेष वचन] १. छन्दसीत्यपौराणिक: पक्ष: इति सूत्रमुच्यते (दु० टी० )। [रूपसिद्धि]
१. अपिगृह्यम्, अपिग्राह्यम्। अपि + ग्रह् + क्यप् + सि। 'अपि' उपसर्गपूर्वक 'ग्रह उपादाने' (८।१४) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'क्यप्' प्रत्यय, “अहिज्यावयिव्यधि०'' (३।४।२) इत्यादि से सम्प्रसारण तथा विभक्तिकार्य। पक्ष में “ऋवर्णव्यञ्जनान्ताद् घ्यण्” (४।२।३५) से 'घ्यण' प्रत्यय होने पर 'अपिग्राह्यम्' रूप बनेगा।
२. प्रतिगृह्यम, प्रतिग्राह्यम्। प्रति + ग्रह + क्यप् + सि। 'प्रति' उपसर्गपूर्वक 'ग्रह' धातु से 'क्यप्' तथा पक्ष में 'घ्यण्' प्रत्यय पूर्ववत् ।।९६५।।
९६६. पदपक्ष्ययोश्च [४।२।२७] [सूत्रार्थ
'पद' तथा 'पक्ष्य' अर्थ में ‘ग्रह उपादाने' (८।१४) धातु से 'क्यप्' प्रत्यय होता है।।९६६॥
[दु० वृ०]
पक्षे भव: पक्ष्यो वर्ग:। पदपक्ष्ययोरर्थयोर्ग्रहे: क्यब् भवति। प्रगृह्यं पदम् । यत् स्वरेण न सन्धीयते। अवगृह्यं पदम्। यस्यावग्रहः क्रियते । पक्षे–अर्जुनगृह्या सेना। चकारादस्वैरिणि बाह्यायाञ्चार्थे - गृह्यका इमे। अवरुद्धका इत्यर्थः। ग्रामगृह्या स्त्री। ग्रामबाह्या इत्यर्थः।।९६६।।
[दु० टी०]
पद०। पक्ष्यो वर्ग उच्यते। अवग्रहः पदविभागः। अर्जुनस्य पक्ष्या अर्जुनगृह्या। चकारादित्यादि। अस्वैरी अस्वतन्त्रः। दयायां कात्ययः। बाहायामिति स्त्रीलिङ्गनिर्देशाल्लिङ्गान्तरे न भवति। मतान्तरेणेदमुच्यते। सूत्रकारमतेन चकारः उक्तसमुच्चयमात्रे।।९६६।