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कातन्त्रव्याकरणम्
को दिखाया जाता है । सामान्य विधियाँ अपवाद या विशेष विधियों को छोड़कर ही प्रवृत्त होती हैं । अर्थात् अपवाद के प्रवृत्त होने पर उत्सर्ग प्रवृत्त नहीं होता । परन्तु धात्वधिकार में दोनों ही विधियों की प्रवृत्ति अभीष्ट होती है, अत: अपवाद को विकल्प से बाधक कहने की आवश्यकता है – इसका निर्वाह दोनों ही व्याकरणों में किया गया है । पाणिनि का सूत्र है – “वाऽसरूपोऽस्त्रियाम्” (अ०३।१।९४)। अत: उभयत्र समानता है ।
[विशेष वचन] १. वाशब्दो व्यवस्थावाचीति क्त-युट्-तुम्-खलर्थेषु वाऽसरूपविधिर्नास्तीति
(दु०७०)। २. व्यवस्थितविभाषाबलादेव व्यक्तेराश्रयणाद् वा यावन्ति लक्ष्याणि भवन्ति __ तावन्ति लक्षणानि (दु०टी०) । ३. प्रत्ययद्वारकमेव प्रकृतिप्रत्ययौ प्रत्ययार्थं सह ब्रूतः (वि०प०;द्र०-दु०टी०)। ४. न चेष्टार्थमुपादीयमानं शास्त्रमनिष्टाय पस्किल्पते इति युक्तम् (वि०प०) । ५. इष्टाश्रयणं कष्टमित्याह - (क०,च०)। ६. आख्यातं क्रियाप्रधानमित्याख्यातमपि भावनाख्यं भावमाह (क०च०) । [रूपसिद्धि]
१. चेयम् । चि+ य + सि । चेतव्यम् । चि+ तव्य + सि | चयनीयम्। चि + अनीय + सि। “स्वराद् यः' (४।२।१०) सूत्र द्वारा 'य' प्रत्यय, गुण तथा विभक्तिकार्य। अपवाद के अभाव में “तव्यानीयौ' (४।२।९) से 'तव्य' तथा 'अनीय' प्रत्यय भी प्रकृत होते हैं । तदनुसार 'चेयम्, चेतव्यम्, चयनीयम्' ये तीनों रूप साधु माने जाते
२. नन्दनः । नन्द् + यु + सि । नन्दकः । नन्द् + वुण + सि । नन्दयिता । नन्द् + तृच् + सि । 'टु नदि समृद्धौं' (१२५) धातु से अपवादंरूप "नन्द्यादेयुः” (४।२।४९) सूत्र द्वारा 'यु' प्रत्यय, नकारागम, 'यु' को 'अन' आदेश तथा विभक्तिकार्य । प्रकृत सूत्र की व्यवस्था के अनुसार उत्सर्गरूप 'वण' तथा 'तृच्' प्रत्यय भी होंगे, जिनके फलस्वरूप 'नन्दक:-नन्दयिता' प्रयोगों का भी साधुत्व उपपन्न होगा ||९४७/
९४८. तव्यानीयौ [४।२।९] [सूत्रार्थ धातु के अनन्तर कृत्संज्ञक 'तव्य' तथा 'अनीय' प्रत्यय होते हैं ॥९४८। [दु० वृ०]
धातोः परौ तव्यानीयौ कृत्सज्ञकौ भवत: । कर्तव्यम्, करणीयम् । कृत्यत्वाद् भावे कर्मणि च स्यात् । केलिमः कर्मकर्तरीष्यते-भिदेलिमाः माषा:, पचेलिमास्तण्डुलाः। वास्तव्य इति। वसे: कर्तरि तव्यो दीर्घश्च रूढित्वात् ।।९४८।