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कातन्त्रव्याकरणम्
[क० च०]
न०। वाशब्दः कथमत्र नानुवर्तते इति न देश्यम्, नञ्ग्रहणबलात्। अन्यथा सम्प्रसारणविकल्पेनैव रूपद्वयं सिध्यति किं निषेधस्य विकल्पेनेति। वेञोऽनात्वनिर्देश: सखार्थः। न च 'वा गतिगन्धनयोः' (२।१७) इत्यस्य व्यावृत्त्यर्थमिति वाच्यम, प्राप्तेरभावात्। प्राप्तिपूर्वको हि निषेध इति प्रतिपादयन्नाह-एताविति। यजादिग्रहादिगणे पाठादेतावपि यजादिग्रहादी उच्यते, उपचारादिति भावः, अन्यथा यजादिशब्देन गण एवोच्यते।।९०४।
[समीक्षा] .
'प्रवाय, प्रज्याय' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ अपेक्षित सम्प्रसारणनिषेध दोनों ही व्याकरणों में किया गया है। पाणिनि के सूत्र हैं-“ल्यपि च, ज्यश्च" (अ०६।१।४१,४२)। दो सूत्रसंख्या की दृष्टि से होने वाले पाणिनीय गौरव को छोड़कर अन्य समानता ही है।
[विशेष वचन] १. वेञोऽनात्वनिर्देशो मन्दधियां सुखप्रतिपत्त्यर्थ: (दु० टी०; क० च०)। [रूपसिद्धि]
१. प्रवाय। प्र+वेञ्+क्त्वा-यप्+सि। 'प्र' उपसर्गपूर्वक 'वेञ् तन्तुसन्ताने' (१।६११) धातु से ‘क्त्वा' प्रत्यय, समास में 'यप्' आदेश, “स्वपिवचियजादीनां यणपरोक्षाशी:षु'' (३।४।३) से प्राप्त सम्प्रसारण का प्रकृत सूत्र से निषेध तथा विभक्तिकार्य।
२. प्रज्याय। प्र+ज्या+क्त्वा-यप्+सि। 'प्र' उपसर्गपूर्वक 'ज्या वयोहानौ' (८।२३) धातु से क्त्वा-यप् तथा प्रकृत सूत्र से सम्प्रसारणनिषेध आदि कार्य पूर्ववत्।।९०४।
९०५. व्येञश्च [४।१।५०] [सूत्रार्थ यप् प्रत्यय के परे रहते 'व्येञ्' धातु में सम्प्रसारण नहीं होता है।।९०५। [दु० वृ०] व्येञश्च यपि परे सम्प्रसारणं न भवति। प्रव्याय, उपव्याय। यजादिरयम्।।९०५। [दु० टी०] व्ये०। योगविभाग उत्तरार्थः। चकार उक्तसमुच्चयमात्रे।।९०५। [समीक्षा]
'प्रव्याय, उपव्याय' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्धयर्थ दोनों ही व्याकरणों में सम्प्रसारण का निषेध किया गया है। पाणिनि का सूत्र है-“व्यश्च" (अ०६।१।४३)। कातन्त्रीय सूत्र का भी पाठान्तर 'व्यश्च' मिलता है। अत: उभयत्र समानता है।