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वि देहो वंदिज्जइ णवि य कुलो को वंदइ गुणहीणो ण हु सवणो देह की वन्दना नहीं की जाती, कुल और जाति के कारण भी कोई वन्दन योग्य नहीं होता । गुणहीन की कौन वन्दना करता है ? चाहे वह श्रमण (साधु) हो या श्रावक ।
गवि य जाइसंजुत्तो । णेय सावओ होइ ॥
कम्मुणा बंभणोहोइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ । वईसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥
कर्म (अपने आचरण कार्यों) से ही मनुष्य ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय, कर्म से ही वैश्य और कर्म शूद्र होता है (जन्म से नहीं ) ।
न वि मुंडएण समणो, न ओंकारेण न मुणी रण्णवासेण, कुसचीरेण न
बंभणो । तावसो ||
सिर मुंडालेने मात्र से कोई श्रमण नहीं हो जाता, मात्र ओंकार का जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं हो जाता, वन में रहने मात्र से कोई मुनि नहीं होता, और कुश - चीवर धारण करने से कोई तापसी नहीं बन जाता ।
समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो ।
नाणेय य मुणी होइ, तवेण होइ तावसो ॥
व्यक्ति समता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से मुनि होता है, और तप करने से तापस होता है ।
ह वरु बंभणु ण वि वइसु णउ खत्तिउ णवि सेसु । पुरिसु णउंसउ इत्थि ण वि एहउ जाणि विसेसु ॥
यह अच्छी तरह जान समझ ले कि न मैं श्रेष्ठ ब्राह्मण हूँ, न क्षत्रिय, वैश्य और न शूद्र आदि अन्य कुछ । मैं पुरुष, स्त्री या नपुंसक भी नहीं हूँ । आत्मा एक मात्र आत्मा है -- उसमें ये कोई भेद प्रभेद नहीं होते । अप्पा मिल्लिवि णाणमउ अवरु परायउ भाउ ।
सो छंडेविणु जीव तुहुं झायहि सुद्धसहाउ |
ज्ञानमयी आत्मा को छोड़कर अन्य सब भाव पर भाव हैं। इसलिए हे जीव ! ( उपरोक्त ) समस्त विकल्पों को छोड़कर मात्र शुद्ध आत्मस्वभाव का ध्यान कर ।
णय कोवि देदि लच्छी, ण कोवि जीवस्स कुर्णादि उवयारं ।
वारं अवयारं कम्मंपि सुहासुहं कुणदि ॥
इस जीवात्मा को न कोई लक्ष्मी आदि देता है, न उसका उपकार करता है। उसके अपने कर्म ही उसके उपकार अपकार और सुख-दुःख के कारण होते हैं।
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*MANAN
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