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अष्टाङ्गहृदयेएभिरेव च निद्राया नाशः श्लेष्मातिसंक्षयात् ॥
निद्रानाशादङ्गमशिरोगौरवजृम्भिकाः ॥ ६३ ॥ इन्होंकरके कफके नाश होनेसे नींदका नाश होजाता है, और नींदके नाशसे अंगमर्द हाडफूटन शिरका भारीपना-जभाई ॥ ६३॥
जाड्यं ग्लानिभ्रमापक्तितन्द्रारोगाश्च वातजाः॥ यथाकालमतो निद्रा रात्रौ सेवेत सात्म्यतः॥ ६४॥
जडपना-ग्लानि-भ्रम-अपक्तिरोग-तंन्द्रा-वातज ये रोग उपजते हैं इसवारते कालके अनुसार प्रकृतिके माफिक नीदको रात्रिमें सेवै ॥ ६४ ॥
असात्म्याज्जागरादर्थं प्रातः स्वप्यादभुक्तवान् ॥
शीलयेन्मन्दनिद्रस्तु क्षीरमद्यरसान् दधि ॥६५॥ प्रकृतिसे रहित जागना होवे तो जितना कालतक जागा हो तिससे आधा कालतक भोजनको नहीं करनेवाला वह मनुष्य प्रभातमें शयन करें, और मंदनींदवाले मनुष्य दूध-मदिरा-रस-दही॥६५॥
अभ्यङ्गोद्वर्तनस्नानमूर्द्धकर्णाक्षितर्पणम् ॥
कान्तावाहुलताश्लेषो निर्वृतिः कृतकृत्यता ॥६६॥ अभ्यंग-उवटना-स्नान और शिर-कान-नेत्र-इन्होंके तर्पणको सेवै, और स्त्रीको लतारूप बाहुओंका मिला और भिति--कृतकृत्यता ॥ ६६ ॥
___ मनोऽनुकूला विषयाः कामं निद्रासुखप्रदाः॥
ब्रह्मचर्यरतेभ्य सुखनिःस्पृहचेतसः ॥ ६७॥ और मनके अनुकूल विषय ये सब नींद और सुखको देतेहैं ब्रह्मचर्यमें रहनेवाला और ग्राम्यसुख अर्थात् मैथुनमें वांछा रहित चित्तवाला ॥ ६७ ॥
निद्रा सन्तोषतृप्तस्य स्वं कालं नातिवर्तते ॥
ग्राम्यधर्मे त्यजेन्नारीमनुत्तानां रजस्वलाम् ॥ ६८॥ - संतोषसे तृप्त मनुष्योंकी नींद अपने कालको उल्लंघन नहीं करती है मैथुनधर्ममें उत्तानपनेसे रहित-कपडे आई हुई रजस्वला ॥ ६८ ॥
अप्रियामप्रियाचारां दुष्टसङ्कीर्णमेहनाम् ॥
अतिस्थूलकृशां सूतां गर्भिणीमन्ययोषितम् ॥ ६९॥ प्रियपनेसे रहित, और अप्रिय आचारोंवाली, दुष्ट तथा संकर्णि मूत्रमार्गवाली और अतिस्थूल तथा अतिदुबली, सूता अर्थात प्रसूतवाली-गर्भवाली और दूसरेकी भार्या ।। ६९ ॥
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