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(६५०)
अष्टाङ्गहृदयेसजले जठरे तैलैरभ्यक्तस्यानिलापहैः॥ स्विन्नस्योष्णाम्वुना कक्षमुदरे परिवेष्टिते॥११३॥वृद्धच्छिद्रोदितस्थाने विध्येदंगुल मात्रकम्॥ निधाय तस्मिन्नाडी च स्रावयेदर्द्धमम्भसः॥११४॥ अथास्य नाडीमाकृष्य तैलेन लवणेन च॥त्रणमभ्यज्य बध्वा च वेष्टयेद्वाससोदरम् ॥११५॥ तृतीयेऽह्नि चतुर्थे वा यावदापोडशं दिनम् ॥ तस्य विश्रम्य विश्रम्य स्त्रावयेदल्पशो जलम्॥ ॥ ११६ ॥ विवेष्टयेद्गाढतरं जठरं च श्लथाश्लथम् ॥ निझुते लंघितः पेयामस्नेहलवणां पिवेत् ॥११७॥
जलसे सहित पेटके होने वातको नाशनेवाले तेलोंकरके अभ्यक्त किये और गरम पानी करके स्बेदित किये तिसरोगीके कुक्षीतक बलके द्वारा पेटको वेष्टितकर ।। ११३ ॥ वृद्धोदर और छिद्रोदरमें कहे स्थानमें १ अंगुलमात्र जगहको बींधे, पीछे तिसमें नाडीको स्थापितकर पानी के अर्ध भागको निकासै ॥ ११४ ॥ मीछे इस रोगीकी नाडीको अच्छीतरह खैच तेल और नमकसे घावको अभ्यक्त कर और बांध पीछे वस्त्रकरके पेटको वेष्टित करै ।। ११५ ॥ तिस रोगीके तीसरे दिन अथवा चौथे दिनमें सोलहवां दिन हो तबतक विश्राम करके अल्प अल्प जलको गिराता रहै ॥ ११६ ॥ और शिथिल हुये पेटको वस्त्रकरके करडा बेष्टित करता रहै और फिरते हुये जलमें लंघन करनेवाला यह रोगी स्नेह और नमकसे वर्जित पेयाको पावै ।। ११७ ॥
स्यात्क्षीरवृत्तिः षण्मासांस्त्रीन्पयां पयसा पिबेत् ॥ त्रींश्चान्यान्पयसैवाद्यात्फलाम्लेन रसेन वा ॥११८ ॥ अल्पशः स्नेहलवणं जीर्णं श्यामाककोद्रवम् ॥
प्रयतो वत्सरेणैवं विजयेत्तजलोदरम् ॥ ११९॥ पीछे छः महीनोंतक अकेले दूधको पीता रहै और तीन महीनोंतक दूधके संग पेयाको पीता रहै ऐसे नो ९ महीनोंको विता कर पीछे अंतके तीन महीनोंमें श्यामाक कोदू आदि अन्नको दूधके संग अथवा कांजीके संग अथवा मांसके रसके संग खाता रहै ।। ११८ ॥ परंतु अत्यंत अल्प स्नेह और नमकसे संयुक्त और पुराने श्यामाक और कोदूंको खावै, ऐसे प्रकारसे एक वर्पतक जतन करता हुआ मनुष्य जलोदरको विशेष करके जीतता है ॥ ११९ ॥
वर्येषु यन्त्रितो दिष्टे नात्यदिष्टे जितेन्द्रियः॥ वार्जित किये आहार और विहारादिकोंमें उदररोगी जतनके द्वारा रहै अर्थात् अतियंत्रित नहीं कहे हुये अन्नपान आदिकोंमें यह जलोदररोगी रोगके होनेके भयसे जितेन्द्रिय रहै ।।
सर्वमेवोदरं प्रायो दोषसंघातजं यतः॥ १२० ॥ अतो वातादिशमनी क्रिया सर्वा प्रशस्यते ॥
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