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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (९८१) अनेक प्रकारके प्राणियों के अंगोंका मैल विरुद्ध औषधकी भस्म ॥ ४९ ॥ और अल्पवीर्य्यवाले विषका संयोग गर कहाताहै ॥
तेन पाण्डुः कृशोऽल्पाग्निः कासश्वासज्वरादितः॥ ५० ॥ वायुना प्रतिलोमेन स्वप्नचिन्तापरायणः॥महोदरयकृल्लीही दीनवाग्दुर्बलोऽलसः॥५१॥ शोफवान्सततध्यातः शुष्कपादकरः क्षयी। स्वप्ने गोमायुमार्जारनकुलव्यालवानरान्॥५२॥प्रायःपश्यति शुष्कांश्च वनस्पतिजलाशयान्॥ मन्यतेकृष्णमात्मानंगौरोगौरं च कालकः॥५३॥विकर्णनासानयनंपश्येत्तद्विहतेन्द्रियः॥ तिससे पांडु कृश और अल्प अग्निवाला खांसी श्वास ज्वरसे पीडित ॥१०॥प्रतिलोमरूप वायुसे स्वप्न और चिंतामें परायण महोदर यकृत तिल्लीवाला और दीनरूप वाणीवाला दुर्बल और आलस्य वाला ॥ ५१ ॥ और शोजेवाला और क्षयवाला निरंतर अफारेसे संयुक्त और शुद्धरूप हाथ तथा . पैरोंवाला और स्वप्नेमें गीदड बिलाव नोला सर्प सिंह आदि वानरोंको ॥ ५२॥ और शुष्करूप हुये वनस्पति और जलके आशयों को विशेषकरके देखताहै, और आप गौररंगवाला होतो कृष्णरूप अपनी आत्माको और आप काला होतो गौररूपवाले अपने शरीरको मानताहै ॥ ५३ ॥ गरकरके हत इंद्रियोंवाला वह रोगी विगत हुए कान नासिका नेत्रकी समान देखताहै ॥
एतैरन्यैश्च बहुभिः क्लिष्टो घोरैरुपद्रवैः ॥ ५४॥
गरा” नाशमाप्नोति कश्चित्सद्योचिकित्सितः ॥ और इन्होंसे तथा अन्य बहुतसे घोररूप उपद्रवोंसे क्लिष्टहुआ ॥ १४ ॥ और कृत्रिम विषसे पीडितहुआ वह मनुष्य नाशको प्राप्त होजाताहै और कोईक नहीं चिकित्सित हुआ तत्काल मरजाताहै
गरातॊ वान्तवान्भुक्त्वा तत्पथ्यं पानभोजनम् ॥ ५५ ॥
शुद्धहृच्छीलयेद्धेम सूत्रस्थानविधेः स्मरन् । __ और कृत्रिम विषसे पीडित रोगी प्रथम वमनको करै पीछे पथ्यरूप पान और भोजनको ग्रहणकर ॥ ॥५६॥ शुद्ध हृदयवाला होके और सूत्रस्थानकी विधिको स्मरण करताहुआ सोनेका अभ्यास करे ।।
शर्कराक्षौद्रसंयुक्तं चूर्ण ताप्यसुवर्णयोः॥५६॥
लेहः प्रशमयत्युग्रं सर्वयोगकृतं विषम् ॥ खांड और शहदसे संयुक्तकिया सोनामाखी और सुवणका चूर्ण ॥ १६॥ चाटाजावे तो दारुण और गरके योगसे उपजे विषको शांत करताहै ॥
मूर्वामृतानतकणापटोलीचव्यचित्रकान् ॥ ५७ ॥ वचामुस्तविडङ्गानि तर्क कोष्णाम्बुमस्तुभिः ॥ पिबेद्रसेन वाम्लेन गरोपहतपावकः॥ ५८॥
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