Book Title: Ashtangat Rudaya
Author(s): Vagbhatta
Publisher: Khemraj Krishnadas

View full book text
Previous | Next

Page 1104
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (१०४१) विषयके अतिशयवाले और सब इंद्रियोंको सुखदेनेवाले और धर्मरूप कल्पवृक्षके अंकुरोंकी तहर अंकुरोंवाले कामदेवके पांचबाण सेवने योग्यहैं ॥ ३७॥ • इष्टाह्येकैकसोप्या हर्षप्रीतिकराः परम् ॥ किं पुनः स्त्रीशरीरे ये संघातेन प्रतिष्ठिताः॥ ३८॥ एक एकभी शब्द आदि सेव्यमान किये अतिशय आनंद और प्रीतिको करतेहैं, और स्त्रीके शरीरमें समूहसे स्थितहुओंकी कौन कथाहै ॥ ३८ ॥ नामापि यस्या हृदयोत्सवाय यां पश्यतां तृप्तिरनाप्तपूर्वासर्वेद्रियाकर्षणपाशभूतां कांतानुवृत्तिव्रतदीक्षिताया॥३९॥ कलाविलासांगवयोविभूषा शुचिः सलज्जा रहसि प्रगल्भातप्रियंव दा तुल्यमनःशया या सा स्त्री वृषत्वाय परं नरस्य ॥ ४०॥ जिसका नामभी हृदयके उत्सबके अर्थहै, और जिसको देखनेवालोंकोभी पूर्ण तृप्ति नहीं होती, और सब इन्द्रियों के आकर्षणमें पाशभूत और पतिके संग अनुवर्तन जो वत तहां दीक्षितहुई ॥३९॥ कलाविलास अंग अवस्थासे विभूषित भीतर और बाहिरसे पवित्र और लज्जासे युक्त और एकांतमें मैथुनके समय प्रगत्भित और प्रियवचनको बोलनेवाली और तुल्यहै कामदेव जिसका ऐसी स्त्री पुरुषके वृपत्वपनेके अर्थ कल्पित की जातीहै ॥ ४० ॥ आचरेच्च सकलां रतिचयाँ कामशास्त्रविहितामनवद्याम् ॥ देशकालवलशक्त्यनुरोधाद्वैद्यतंत्रसमयोक्त्यविरुद्धाम् ॥४१॥ कामदेवके शास्त्रमें कहीहुई निंदासे वर्जित, और देशकाल बल शक्तिके अनुरोधसे वैद्यकशास्त्रके आचारमें भविरुद्ध सकलरतिचर्याको आचरितकरै ॥ ४१ ॥ अभ्यंजनोद्वर्त्तनसेकगंधसृक्पत्रवस्त्राभरणप्रकाराः॥ गांधर्वकाव्यादिकथाप्रवीणाः समस्वभावा वशगा वयस्याः॥ ४२ ॥ दीर्घिकास्वभवनांतनिविष्टापद्मरेणुमधुमत्तविहंगा॥नीलसानु गिरिकूटनितंबे काननानि पुरकंठगतानि ॥४३॥ दृष्टिसुखावि विधातरुजातिःश्रोत्रसुखः कलकोकिलनादः॥अंगसुखर्जुवशेनविभूषा चित्तसुखः सकलः परिवारः॥४४॥ तांबूल्लमच्छमदिरा कांता कांता निशाशशांकांका ॥ यद्यच्च किंचिदिष्टं मनसो बाजीकरं तत्तत् ॥४५॥ ६६ For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 1102 1103 1104 1105 1106 1107 1108 1109 1110 1111 1112 1113 1114 1115 1116 1117