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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (१०१५) पयसा चात्र जीणे भोजनमिष्यते॥२१॥ वैखानसा वालाखल्यास्तथा चान्ये तपोधनाः॥ब्रह्मणा विहितं धन्यमिदं प्राश्य रसायनम् ॥ २२ ॥ तन्द्राश्रमक्लमवलीपलितामयवर्जिताः ॥
मेधास्मृतिवलोपेता बभूवुरमितायुषः ॥ २३ ॥ हरडै १००० आँवलाके फल ३००० पंचमूल १००० तोले ॥ १५ ॥ इन्होंको दशगुणे जलमें पकावै जब दशवाँ भाग रसका स्थित रहै, तब मर्दितकर और गुठलियोंको निकास हरडै
और आँवलोंको ॥ १६ ॥ तिस पूर्वोक्त औषधोंके क्वाथमें योजितकर और सोलह सोलह तोलेभर दालचीनी इलायची नागरमोथा हलदी पीपल अगर चंदन ॥ १७ ॥ मेंडकपर्णी नागकेशर शंख. पुष्पी वच क्षुद्रमोथा मुलहटी वायविडंग और ४४०० तोले ।। १८ । मिसरी और घृत ९७६ तोले और तेल ३८४ तोले इन सबोंको पकावै जब अग्निपै लेहभावको प्राप्त होजावे तब ॥ १९॥ अग्निसे उतारे और शीतलकरै पीछे १२६० तोले शहदको मिलावै पीछे मथै मथेपीछे घतको पात्रमें डाल धरै ॥ २० ॥ जो सायंकालके भोजनको नहीं रोकै ऐसी इसकी मात्रा कहीहै और जीर्णहोनमें सांठिचावलोंका भोजन दूधके संग वांछितहै ॥ २१ ॥ वैखानस और वालखिल्य तथा अन्य तपस्वी ब्रह्माजीसे रचेहुए धन्यरूप इस रसायनका भोजन कर ॥ २२ ॥ तंद्रा परिश्रम वलीपलितरोगसे वर्जित और बुद्धि स्मृति बलसे संयुक्त और अमित आयुवाले हुए हैं ॥ २३॥
अभयामलकसहस्रं निरामयं पिप्पलीसहस्रयुतम् ॥ तरुणपलाशक्षारद्रवीकृतं स्थापयेद्भाण्डे ॥ २४॥ उपयुक्त च क्षारे छायासंशुष्कचूर्णितं योज्यम् ॥ पादांशेन सितायाश्चतुर्गुणाभ्यां मधुघृताभ्याम् ॥२५॥ तद्धृतकुम्भे भूमौ निधाय षण्माससंस्थमुद्धृत्य ॥ प्राहे प्राश्य यथानलमुचिताहारो भवेत्सततम् ॥ २६ ॥ इत्युपयुंज्याशेषं वर्षशतमनामयो जरारहितः॥ जीवति बलपुष्टिवपुः स्मृतिमेधाद्यन्वितो विशेषेण ॥ २७॥ दृढरूप हरडै और आंवले एक एक हजार और पीपलभी एकहजार इन्होंको नये ढाकके खारसे द्रवीभूत कर पात्रमें स्थापितकरै ॥ २४ ॥ पीछे छायामें सुखाकर चूर्ण बना चौथाई भाग मिश्री और चौगुने शहद और घृतसे संयुक्तकरै ॥ २५ ॥ पीछे तैसेही कलशेमें डाल पृथिवीमें गाडै, पीछे ६ महीनोंमें निकासै पीछ पूर्वाह्नमें खावै और जठराग्निके अनुसार निरंतर उचितभोजनको सवै ॥ २६ ॥ इस संपूर्ण औषधको प्रयुक्त करनेसे १०० वर्षकी अवस्थावाला और बुढापेसे रहित और विशेषकरके बल पुष्टि शरीर स्मृति बुद्धि आदिसे युक्तहोके जीवता रहताहै ॥२७॥
नीरुजापलाशस्य छिन्ने शिरसि तत्क्षतम् ॥ अन्तर्द्विहस्तं गम्भीरं पूर्य्यमामलकैर्नवैः ॥२८॥ आमूलं वेष्टितंदर्भः पद्मिनीपङ्कलेपितम् ॥ आदीप्य गोमयैर्वन्यैर्निर्वाते स्वेदयेत्ततः॥
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