Book Title: Ashtangat Rudaya
Author(s): Vagbhatta
Publisher: Khemraj Krishnadas
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (१०३३ ) नित्यप्रति ४ तोले काले तिलोंको खावै और शीतलजलका अनुपानकरै शरीरकी बडी पुष्टि होती और मरनेतक कररे दांत रहतेहैं ॥ ५९॥
चूर्णं श्वदंष्ट्रामलकामृताना लिहन्ससर्पिर्मधुभागमिश्रम् ॥ वृषः स्थिरः शांतविकारदुःखः समाः शतं जीवतिकृष्णकेशः१६०॥ . गोखरू आँवला गिलोयको वृत शहदके भागसे मिलाय चाटे तो वृष स्थिर शांतहुये विकार और दुःखवाला और कृष्णवालोवाला मनुष्य होके १०० वर्षांतक जीवताहै ।। १६० ॥
सार्द्ध तिलैरामलकानि कृष्णरक्षाणि संक्षुद्य हरीतकीर्वा ॥ येऽद्युमयूरा इव ते मनुष्या रम्यं परीणाममवाप्नुवंति ॥ ६१ ॥ काले तिलोंके संग आंवलोंको अथवा बहेडेके फलोंको अथवा हरडोंको जो मनुष्य खातेहैं, वे मोरों की तरह रमणीयरूप अवस्थाके परिणामको प्राप्त होतेहैं ।। ६१ ॥ शिलाजतुक्षौद्रविडंगसर्पिोहाभयापारदताप्यभक्षः॥
आपूर्यते दुर्वलदेहधातुस्त्रिपंचरात्रेण यथा शशांकः ॥ ६२॥ शिलाजीत शहद वायविडंग घृत लोहा हरडै सिंगरफ इन्होंको खानेवाला मनुष्य दुर्बल देह धातुवाला आपूरित होके १५ रात्रियोंमें चंद्रमाके समान होजाताहै ।। ६२ ।।
ये मासमेकं स्वरसं पिबंति दिने दिने भुंगरजः समुत्थम् ॥ क्षीराशिनस्ते बलवीर्ययुक्ताः समाः शतं जीवितमाप्नुवंति ॥३॥ जो एक महीनातक रोजके रोज भंगरेके चूर्णके स्वरसको पीवतेहैं और दूधका भोजन करतेहैं बे बल और वीर्यसे युक्तहुये १०० वर्षतक जीवतेहैं ।। ६३ ॥
मासं वचामप्युपसेवमानः क्षीरेण तैलेन घृतेन वाऽपि ॥ भवंति रक्षोभिरधृष्यरूपा मेधाविनो निर्मलमृष्टवाक्याः॥ ६४॥
धके संग तेलके संग अथवा घृतके संग एक महीनातक वचको सेवनेवाले मनुष्य राक्षसोंसे अधृष्यरूप और धारणावाले निर्मल और प्रशस्त वाक्यवाले होजातेहैं ॥ ६४ ॥ मंडूकपर्णीमपि भक्षयंतो भृष्टां घृते मासमनन्नभक्ष्याः॥ जीवंति कालं विपुलं प्रगल्भास्तारुण्यलावण्यगुणोदयस्थाः॥६५॥
घृतमें भुनीहुई ब्राह्मीको एक महीनातक खानेवाले और अन्नसे वर्जित पदार्थको खानेवाले प्रगल्भरूप तरुणपने लावण्टता गुणोदयमें स्थितहोके बहुत कालतक जीवतहैं ।। ६५॥
लांगलीत्रिफलालोहपलपंचाशतीकृतम् ॥मार्कवस्वरसे षष्टयः गटिकानां शतत्रयम् ॥६६॥ छायाविशुष्कं गटिकामद्यात्पूर्व समस्तामपि तां क्रमेण ॥ भजेद्विरिक्तः क्रमशश्च मंडं पेयां विलेपी रसकौदनं च ॥६७॥ सर्पिः स्निग्धं मासमे
For Private and Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 1094 1095 1096 1097 1098 1099 1100 1101 1102 1103 1104 1105 1106 1107 1108 1109 1110 1111 1112 1113 1114 1115 1116 1117