Book Title: Ashtangat Rudaya
Author(s): Vagbhatta
Publisher: Khemraj Krishnadas
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(१०३२)
अष्टाङ्गहृदयेजो वायविडंग भिलावा सूठ घृत शहद इन्होंको खातेहैं, वे पुरुष लावण्यतासे युक्त होके रोगरूपी तरंगोंवाली बुढापेरूप नदीको तिरतेहैं ॥ ५२ ॥
खदिरासनयूषभावितायास्त्रिफलाया घृतमाक्षिकप्लुतायाः ॥ नियमेन नरा निषेवितारो यदि जीवंत्यरुजः किमत्र चित्रम्॥५३॥
खैर और आसनाके क्वाथमें भावितकरे त्रिफलेको शहद और घृतमें मिला नियमकरके सेवनेवाले जा रोगोंसे रहित हुये जीवतेहैं इसमें क्या चित्रहै ॥ ५३ ॥
बीजकस्य रसमंगुलिहार्यं शर्करामधुधृतं त्रिफलां च ॥ शीलयत्सु जरता पुरुषेषु स्वागतापि विनिवर्तत एव ॥ ५४॥ अत्यंत खररूप बीजसारका रस खांड शहद घृत त्रिफला इन्होंको सेवनेवाले मनुष्योंमें अच्छीतरह प्रातहुआभी बूढापना निवृत्त होजाताहै ॥ १४ ॥
पुनर्नवस्या पलं नवस्य पिष्टं पिवेद्यः पयसार्द्धमासम्॥ मासद्वयं तत्रिगुणं समा वा जीर्णोऽपि भूयः स पुनर्नवः स्यात्५५ नवीन पुनर्नवाको दो तोलेभर ले महीन पीस दूधके संग १५ दिनोंतक पीवै, अथवा दो महीनोंतक अथवा छ: महीनोंतक अथवा वर्ष दिनतक पावै, जीर्णहुआभी मनुष्य फिर नवीन अवस्थावाला होजाताहै ॥ ५५ ॥
मूर्वावृहत्यंशुमती बलानामुशीरपाठासनसारिवाणाम् ॥ कालानुसार्या गुरुचंदनानां वदंति पौनर्नवमेव कल्पम् ॥ ५६ ॥ मूर्वा अर्थात् मरोडफली बडीकटेहली शालपणी खरेहटी खस पाठः आतना संतमूल पिंडीतगर अगर चंदन इन्होंकी कल्पना पूर्वोक्त फलको करतीहै ।। ५६ ॥
शतावरीकल्ककषायसिद्धं ये सर्पिरश्नंति सिताद्वितीयम् ॥ ताञ्जीविताध्वानमभिप्रपन्नान्नविप्रलुपंति विकारचौराः॥ ५७॥ शतावरी कल्क और काथमें सिद्धकिये घृतमें मिसरी मिला खावै तो, जीवितरूपी मार्गमें प्राप्तहुये तिन मनुष्योंको विकाररूपी चोर नहीं छेदित करतेहैं ॥ ५७ ॥
पीताश्वगंधापयसार्द्धमासं धृतेन तैलेन सुखांबुना वा ॥ कृशस्य पुष्टिं वपुषो विधत्ते बालस्य सस्यस्य यथा सुवृष्टिः॥५८॥ असगंधको दूधके संग अथवा घृतके संग अथवा तेलके संग अथवा गरमपानीके संग पान करै तौ १५ दिनमें असगंध कृश शरीरको पुष्टि देतीहै जैसे बालक खेती अच्छी वर्षासे ॥ १८ ॥
दिने दिने कृष्णतिलप्रकुंचं समश्नुतां शीतजलानुपानम् ॥ पोषः शरीरस्य भवत्यनल्पो दृढीभवंत्यामरणाच्च दंताः ॥ ५९॥
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