Book Title: Ashtangat Rudaya
Author(s): Vagbhatta
Publisher: Khemraj Krishnadas
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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (१०२९) पित्तकोपभयादंते युंज्यान्मृदु विरेचनम् ॥
रसायनगुणानेवं परिपूर्णान्समश्नुते ॥१३०॥ लस्सनके प्रयोगके अंतमें पित्तके कोपके भयसे कोमल जुलाबको प्रयुक्तकरै, ऐसे परिपूर्णरूप रसायनके गुणोंको मनुष्य प्राप्त होसकताहै ॥ १३० ॥
ग्रीष्मेऽर्कतप्ता गिरयो जतुतुल्यं वमंति यत् ॥
हेमादिषधातुरसं प्रोच्यते तच्छिलाजतु ॥३१॥ ग्रीष्मऋतुमें सूर्यसे तप्तहुये पर्वत लाखके तुल्य सोना आदि छःधातुओंके रसको उगलतेहैं वह शिलाजीत कहाताहै ॥ ३१ ॥
सर्वं च तिक्तकटुकं नात्युष्णं कटुपाकतः॥
छेदनं च विशेषेण लोहं तत्र प्रशस्यते ॥३२॥ छावातुओंसे उपजा शिलाजीत तिक्तहै, कटुकहै और अत्यंत गरम नहींहै, और पाकमें कटुहै, और विशेषकरके छेदनहै, तिन्होंमें लोहसे उपजा शिलाजीत श्रेष्ठहै ॥ ३२ ॥
गोमूत्रगंधि कृष्णं गुग्गुल्वाभं विशर्करं मृत्स्नम् ॥
स्निग्धमनम्लकषायं मृदु गुरु च शिलाजतु श्रेष्ठम् ॥ ३३॥ __ गोमूत्रके समान गंधवाला, काला, गगलके समान कांतिवाला, और कंकरोंसे वार्जित,और मट्टीसे मिलाहुआ स्निग्ध और अम्ल तथा कसैलेपनेसे वर्जित कोमल और भारी शिलाजीत श्रेष्ठहै ॥३३॥
व्याधिव्याधितसात्म्यं समनुस्मरन्भावयेदयःपात्रे ॥
प्राकेवलजलधौतं शुष्कं काथैस्ततो भाव्यम् ॥ ३४॥ रोग और रोगवालेकी प्रकृतिको स्मरण करताहुआ प्रथम लोहके पात्रमें भावितकरै अर्थात् पहिले अकेले जलसे धोके सुखावे, पीछे क्वाथोंसे भावितकरै ॥ ३४ ॥
समगिरिजमष्टगुणिते निष्क्वाथ्यं भावनौषधं तोये ॥ तन्नि!हेऽष्टांशे पूतोष्णे प्रक्षिपेगिरिजम् ॥३५॥ तत्समरसतां यातं संशुष्कं प्रक्षिपेद्रसे भूयः॥
स्वैः स्वैरेवं क्वाथैर्भाव्यं वारान्भवेत्सत ॥ ३६॥ समान शिलाजीतकी भावनाके औषधको आठगुने पानी में कथितकरै तिस छानेड्डये गरमरूप आठवें हिस्सेसे शेषरहे क्वाथमें शिलाजीतको गेरै ॥ ३५ ॥ तिसके समान रसको प्राप्त होजावे. तब सुखाके फिर रसमें गैरे, ऐसे अपने अपने क्वाथोंसे सातवार भावितकरै ॥ ३६ ॥
अथ स्निग्धस्य शुद्धस्य घृतं तिक्तकसाधितमाम्यहं युंजीत गिरिजमेकैकेन तथा व्यहम् ॥३७॥फलत्रयस्य यूषेण पटोल्याम
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