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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (८६७) तत्र वातात्प्रतिश्याये मुखशोषो भृशं क्षवः ॥ ३ ॥ घ्राणोपरोधनिस्तोददन्तशंखशिरोव्यथाः॥ कीटका इव सर्पन्ति मन्यते परितो ध्रुवौ ॥४॥
स्वरसादाश्चरात्पाकः शिशिराच्छकफस्रुतिः ॥ . उसमें वातसे उपजे प्रतिझ्या यमें मुखका शोष और अतिशय करके छींक ॥ ३ ॥ और नासिकाका रुकजाना और चभका और दांत कनपटी शिरमें पीडा और चारों तर्फसे भुकुटियोंके कोडेसे चलते हैं ऐसे रोगीको विदित होताहै ॥ ४ ॥ और स्वरकी शिथिलता चिरकालमें पाक शीतल तथा पतले कफका झिरना ये उपजतेहैं ।
पित्तात्तष्णाज्वरघ्राणपिटिकासम्भवभ्रमाः॥५॥
नासाग्रपाको रूक्षोष्णस्ताम्रपीतकफस्नुतिः ॥ और पित्तसं उपजे प्रतिश्यायमें तृषा ज्वर नासिकामें फुनसियोंकी उत्पत्ति और भ्रम॥६॥ और नासिकाके अग्रभागमें पाक रूखा और गरम और लाल तथा पीले कफका झिरना ये सब उपजते हैं.
कफात्कासोऽरुचिः श्वासो वमथुर्गात्रगौरवम् ॥६॥
माधुर्यं वदने कण्डूः स्निग्धशुक्लघना सुतिः॥ और कफसे उपजे प्रतिश्यायमें खांसी अरुची श्वास छर्दि शरीरका भारीपन ॥ ६ ॥ मुखमें मधुरपना और खाज और चिकना तथा सफेद तथा करडा स्त्राव होताहै ॥
सर्वजो लक्षणैः सर्वैरकस्मादृद्धिशान्तिमान् ॥७॥ और सब दोपोंके लक्षणोंकरके सान्निपातका प्रतिश्याय उपजताहै, यह आपही आप वृद्धिको और शांतिको प्राप्त होताहै ॥ ७ ॥
दुष्टं नासाशिराः प्राप्य प्रतिश्यायं करोत्यसृक् ॥ उरसः सुप्तता ताम्रनेत्रत्वं श्वासपूतिता ॥ ८॥
कण्डूः श्रोत्राक्षिनासासु पित्तोक्तं चात्र लक्षणम् ॥ दुष्टहुआ रक्त नासिकाकी नाडियोंमें प्राप्त होके प्रतिश्यायको करताहै, तब छातीमें शून्यता और तांबेके समान नेत्रोंका होजाना, और श्वासमें दुर्गध ॥ ८ ॥ खाज और कान नेत्र नासिकामें पित्तके प्रतिश्यायमें कहे लक्षण ये होते हैं ।
सर्व एव प्रतिश्याया दुष्टता यान्त्युपेक्षिताः॥ ९॥ यथोक्तोपद्रवाधिक्यात्ससर्वेन्द्रियतापनः ॥ साग्निसादज्वरश्वासकासोरःपाचवेदनः॥१०॥कुप्यत्यकस्माद्बहुशो मुखदौर्गन्ध्यशोफत्॥
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