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(९३६)
अष्टाङ्गहृदयेषट्कृच्छ्रसाधनास्तेषां निचयक्षतजौ त्यजेत् ॥२१॥ प्रवाहिनी वली प्राप्त सेवनी वा समाश्रितम् ॥ अथास्य पिटिकामेव तथा यत्नादुपाचरेत् ॥२२॥
शुद्धयासृक्नुतिसेकाधैर्यथा पाकं न गच्छति॥ तिन्होंमें छः तो कष्टसाध्य हैं, सन्निपातका और क्षतज असाध्य है ॥२१॥ और प्रवाहिनीवलीमें प्राप्त भगंदरको, वली और सेवनीवलीमें प्राप्तहुएको और फुनसियोंको यत्नसे दूरकरै ॥ २२ ॥ और शुद्धिसे रुधिरके झिरनेसे इलाजकरे जैसे पके नहीं ।
पाके पुनरुपस्निग्धं स्वेदितं चावगाहतः॥२३॥ यन्त्रयित्वार्शसमिव पश्येत्सम्यग्भगन्दरम् ॥
अवाचीनं पराचीनमन्तर्मुखबहिर्मुखम् ॥ २४॥ और पकेहुयेको स्निग्धकरके सेकनेसे दूरकरै ॥२३॥ और भगंदरको बवासीरकी समानयंत्रित करके भगंदरको सम्यक् देखे, तिन्होंमें एक अर्वाचीन मुख दूसरा पराचीनमुख तीसरा अंतर्मुख चौथा बहिर्मुख ॥ २४ ॥
अथान्तर्मुखमेषित्वा सम्यक्छस्त्रेण पाटयेत् ॥ बहिर्मुखं च निःशेषं ततः क्षारेण साधयेत् ॥ २५॥
अग्निना वा भिषक्साधुक्षारेणैवोष्ट्रकन्धरम् ॥ तैसे अंतर्मुखको जानके शस्त्रसे फाडे और बहिर्मुखको क्षारसे सिद्ध करै ॥२५॥ और उष्ट्रकेसी ग्रीवाको वैद्य अग्निसे अथवा क्षारसे दूरकरै।
नाडीरेकान्तराः कृत्वा पाटयेच्छतपोनकम्॥ २६ ॥ तासु रूढामु शेषाश्च मृत्युदीर्णे गुदेऽन्यथा ॥
परिक्षेपिणि चाप्येवं नाडयुक्तैः क्षारसूक्तकैः ॥ २७॥ और नाडियोंको दूरकरके शतपोनकको विर्णि करै ॥ २६ । उनरूढ भगंदरों के बाकी भगं. दरोंको गुदमें प्राप्तहुयोंको नाडीमें कहे क्षारसूत्रोंसे दूरकरे ॥ २७ ।।
अर्शीभगन्दरे पूर्वमशासि प्रतिसाधयेत् ॥ त्यक्त्वोपचर्यःक्षतजःशल्यं शल्यवतस्ततः॥२८॥
आहरेच्च तथा दद्यात्कृमिघ्नं लेपभोजनम्॥ पिण्डनाड्यादयः स्वेदाः सुलिग्धा सजि पूजिताः॥२९॥ भगंदरमें बवासीर होतीहै इसकारण पहले बवासीरको दूरकरे, पश्चात् शल्यवाले के शल्यको दूर करके क्षतजका इलाजकरे ॥ २८ ॥ और लेप भोजन कृमिको नाशकरनेवाला देवै और पिंड्यादिक स्निग्ध पसीना करावै ॥ २९ ॥
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