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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (९७५) णा मूर्ती ततः स्थावरजङ्गमे ॥ सोऽध्यतिष्ठन्निज रूपमुज्झित्वा • वञ्चनात्मकम् ॥३॥
अमृतके अर्थ देवता और दैत्योंसे मथ्यमान हुये समुद्रमें अमृतकी उत्पत्तिसे पहिले घोर दर्शनवाला पुरुष उपजा ॥ १ ॥ परंतु दीप्त तेजवाला और चार डाढौंवाला हरे केशोवाला अग्निके समान नेत्रोंवालाथा,तिस पुरुषको देखकर जगत विषादको प्राप्त होगया, तिससे वह पुरुष विषसंज्ञक कहाताहै ॥ २ ॥ पीछे ब्रह्मासे ढुंकृत किया वह पुरुष अपने वचनरूपको त्यागके स्थावर और जंगमोंमें मूर्तिमान् होके स्थित होता भया ॥ ३॥
स्थिरमत्युल्बणं वीर्ये यत्कन्देषु प्रतिष्ठितम् ॥
कालकूटेन्द्रवत्साख्यशृङ्गीहालाहलादिकम् ॥४॥ जो स्थवार विष कंदोंमें प्रतिष्ठितहै वह वीर्यमें अत्युत्बण होताहै, और वह कालकूट इन्द्रवत्साख्य शृंगी हालाहल आदिनामसे विख्यातहै ॥ ४ ॥
सर्पलूतादिदंष्ट्रास दारुणं जङ्गमं विषम् ॥ सर्प और मकडी आदिकी दाढोमें दारुणरूप जंगम विषहै ।
स्थावरं जङ्गमं चेति विषं प्रोक्तमकृत्रिमम् ॥ ५॥ कृत्रिमं गरसंशं तु क्रियते विविधौषधैः॥ हन्ति योगवशेनाशु चिराच्चिरतराच्च तत् ॥६॥
शोफपाण्डूदरोन्माददुर्नामादीन्करोति च ॥ स्थावर और जंगम नामोंसे अकृत्रिम विष दो प्रकारका कहाहै ॥१॥और अनेक प्रकारके औष धोंसे जो कियाजाय वह गरसंज्ञक कृत्रिम विष कहाताहै, यह योगवशसे शीघ्र नाशताहै तथा अत्यंत चिरकालमें नाशताहै ॥ ६ ॥ शोजा पांडु उदर रोग उन्माद बवासीर आदि रोगोंको करताहै ॥
तीक्ष्णोष्णरूक्षविशदं व्यवाय्याशुकरं लघु ॥७॥
विकाशिसूक्ष्ममव्यक्तरसं विषमपाकि च ॥ ___ और तीक्ष्ण गरम रूखा विशद व्यवायि शीघ्र करनेवाला हलका ॥ ७ ॥ विकाशि सूक्ष्म अप्रकट रसवाला और नहीं पकनेवाला विष होताहै ॥
ओजसो विपरीतं तत्तीक्ष्णाद्यैरन्वितं गुणैः॥८॥
वातपित्तोत्तरं नृणां सद्यो हरति जीवितम् ॥ और तीक्ष्णआदि दशगुणोंसे युक्तहुआ यह विष पराक्रमके विपरीत होजाताहै ॥८॥वात और पित्तकी अधिकतावाला होके विष प्राणोंको तत्काल हरताहै ॥
विवं हि देहं सम्प्राप्य प्रारदूषयति शोणितम् ॥९॥
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