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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (९५१) और पित्तकी अधिकतावाले और मंद दोषोंसे जो विसर्पकी तरह फैले ॥ १३॥ और पके नहीं और सूक्ष्म हो और तांबेके रंगहो और ज्वरको उपजावै ऐसा शोजा जालगर्दभ कहाताहै ॥
मलैः पित्तोल्बणैः स्फोटा ज्वरिणो मांसदारणाः ॥ १४ ॥ कक्षाभागेषु जायन्ते येऽग्न्याभाः साऽग्निरोहिणी ॥
पञ्चाहात्सप्तरात्राद्वा पक्षाद्वा हन्ति जीवितम् ॥ १५ ॥ और पित्तकी अधिकतावाले दोषोंसे ज्वरवाले और मांसको काटनेवाले फोडे ॥ १४ ॥ काखके भागों में उपजै और अग्निके समान कांतिवाले हों, वह अग्निरोहिणी कहातीहै, पांच दिनमें अथवा सात दिनमें अथवा पंद्रह दिनमें जीवको हरतीहै ॥ १५ ॥
. त्रिलिङ्गा पिटिका वृत्ता जत्यमिरिवेल्लिका ॥ त्रिदोषके लक्षणोंसे संयुक्त और गोल और जत्रुस्थानके ऊपर उपजी फुनसी इरिवेल्लिका कहातीहै ।।
विदारीकन्दकठिना विदारी कक्षवङ्क्षणे ॥ १६॥ और विदारीकंदके समान कठिन और काखमें तथा अंडसधिमें उपजी फुनसी विदारी कहातीहै ॥ १६ ॥
मेदोऽनिलकफैन्थिः स्नायुमांसशिराश्रयैः॥ भिन्नो वसाज्यमध्वाभं स्त्रवेत्तत्रोल्बणोऽनिलः॥१७॥ मांसं विशोष्य ग्रथितां शर्करामुपपादयेत् ॥ दुर्गन्धं रुधिरं क्लिन्नं नानावर्ण ततो मलाः॥१८॥
तां स्रावयन्ति निचितां विन्यात्तच्छर्कराव॒दम् ॥ नस मांस शिरामें आश्रितहुये मेद वायु कफसे जो ग्रंथि होवे और वह फूटके वसा घृत शहदके सदृश स्त्रावको झिरावै, तहां बढाहुआ वायु ॥॥ १७ ॥ मांसको शोषितकर अथितरूप शर्कराको करताहै, पीछे वात आदि दोष दुर्गंध और क्लिन्न और अनेक वर्णवाले रक्तको ॥ १८॥ तिस संचितहुई फुनसीसे झिरातहैं तिसको शर्करार्बुद जानो ।।
पाणिपादतले सन्धौ जत्रूचं वोपचीयते ॥ १९॥ वल्मीकवच्छनैर्ग्रन्थिस्तद्वद्वह्वणुभिर्मुखैः॥
रुग्दाहकण्डक्लेदाढयो वल्मीकोऽसौ समस्तजः ॥२०॥ हाथ और पैरके तलुवेमें तथा सन्धिमें तथा जत्रुस्थानके ऊपर जो उपजै ॥ १९ ॥औ सांपकी बँबईके तरह हौले हौले रचीजावे, और तैसेही बहुतसे और सूक्ष्म मुखोंकरके संयुक्तहो और पीडा दाह खाज क्लेदसे युक्तहो. और सन्निपातसे उपजै ऐसी ग्रंथि वल्मीक कहातीहै ॥ २० ॥
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