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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
एकोनत्रिंशोऽध्यायः ।
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( ९३९)
अथातो ग्रन्थ्यर्बुदश्लीपदापचीनाडीविज्ञानमध्यायं व्याख्यास्यामः॥ इसके अनंतर ग्रंथि, अर्बुद, श्लीपद, अपची, नाडीविज्ञानीयनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे। कफप्रधानाः कुर्वन्ति मेदोमासास्रगामलाः ॥
वृत्तोन्नतं यं श्वयथुं स ग्रन्थिर्मथनात्स्मृतः ॥ १ ॥
कफ मुख्यवाले दोष मेद मांस रुधिरको प्राप्त होकर सोजेकी तरह गोल गांठसी कर देता है, गूंथा हुआ होने से तिसको ग्रंथि कहते है ॥ १ ॥
दोषास्त्रमांसमेदोऽस्थिशिरात्रणभवा
नव ॥
सो वात पित्त कफ रुधिर मांस मेद अस्थि नाडीव्रणसे उत्पन्न होनेवाली नौ प्रकारकी ग्रंथि है || ते तत्र वातादायामतोदभेदान्वितोऽसितः ॥ २ ॥ स्थानात्स्थानान्तरगतिरकस्माद्धानि वृद्धिमान् ॥
मृदुर्बस्तिरिवानो विभिन्नोऽच्छं स्रवत्यसकूं ॥ ३ ॥
तिन्होंमें बात से शरीर तनता है, पीडा और भेद होजाता है, और रंग काला होजाता है ॥ २ ॥ और अचानक पहली जगह से अगली जगह होजाता है, और गांठ घटती है और बढती है और बस्तिकी समान बंधी कोमल गांठ फूटजाती है और स्वच्छ रुधिर झिरता है ॥ ३ ॥ पित्तात्सदाहः पीताभो रक्तो वा पच्यते द्रुतम् ॥
पित्तकी ग्रंथि में तो दाह पीलापन ललाई पकना और गरम रुधिरका झिरना ये सब होजाते हैं ॥ भिन्नोऽमुष्णं स्रवति श्लेष्मणा नीरुजो घनः ॥ ४ ॥ शीतः सवर्णः कण्डूमान् पक्कः पूयं स्रवेद् घनम् ॥
और कफसे पीडारहित कररी गांठ होजाती है || ४ || और ठंढी त्वचाके समान वर्ण खाज पकना होजाता है और राध झिरती है ||
दोषैर्दुष्टेऽसृजि ग्रन्थिर्भवेन्मूर्च्छत्सु जन्तुषु ॥ ५ ॥ शिरामांसं च संश्रित्य स स्वापः पित्तलक्षणः ॥
और जंतुओं के दोषोंसे रुधिर बिगडके मूर्च्छा होके तिसमें गांठ होजाती है ॥ ५ ॥ और जो नाडी और मांस आश्रय हो तिसमें स्वाप होजाता है और पित्तके लक्षण होजाते हैं ॥
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मांसलैर्दृषितं मांसमाहारैर्ग्रन्थिमावहेत् ॥ ६ ॥
स्निग्धं महान्तं कठिनं शिरानद्धं कफाकृतिम् ॥
और दोषोंसे दूषित मांस आहारोंसे ग्रंथिको करता है ॥ ६ ॥ और चिकनी बडी कठिन और नाडी से बंधी हुई कफके आकार ॥