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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
( ९४१ )
शिरास्थं शोणितं दोषः सङ्कोच्यान्तः प्रपीडय च ॥ पाचयेत तदा नद्धं सास्रावं मांसपिण्डितम् ॥ १६ ॥ मांसाङ्कुरैश्चितं याति वृद्धिं चाशु स्रवेत्ततः ॥ अजस्रं दुष्टरुधिरं भूरि तच्छाणितार्बुदम् ॥ १७ ॥ - नाडीमें स्थितहुआ रुधिर और दोष संकोचकरके पीडाकरके जो झिरती हुई मांसपिंडी हो और झिरे तिसको पावै ॥ १६ ॥ सो मांसपिंडी मांसके अंकुरोंसे इकट्ठी होके बढ़ती है और झिरती और जिसमें बारंबार बहुत बुरा रुधिर निकले तिसको शोणितार्बुद कहते हैं ॥ १७॥ श्वसृङ्मांसजे वर्ज्ये चत्वार्य्यन्यानि साधयेत् ॥ तिन ग्रंथियों में रुधिर मांससे उपजी ग्रंथि असाध्य है और चार साध्य हैं | प्रस्थिता वंक्षणोर्वादिमधः कार्यं कफोल्वणाः ॥ १८ ॥ दोषा मांसास्त्रगाः पादौ कालेनाश्रित्य कुर्वते ॥ शनैः शनैर्घनं शोफं श्लीपदं तत्प्रचक्षते ॥ १९ ॥ और कफवाला दोषभी पसवाडोंमें स्थित होकर नीचेको प्राप्त होता है ॥ १८ ॥ और मांस रुधिरको प्राप्तहुये दोष कालसे पैरों को शनैःशनैः प्राप्त होकर करडा सोजा होजाता है तिसको 'श्लीपद कहते हैं ॥ १९ ॥
परिपोटयुतं कृष्णमनिमित्तरुजं खरम् ॥ रूक्षं च वातात्
सो वातसे तो ग्रंथियुक्त स्याह बिना प्रयोजन पीडाकरे तीक्ष्ण हो और स्थापन रूक्ष होजाता है. पित्तात्तु पीतं दाहज्वरान्वितम् ॥ २० ॥
कफाद् गुरु स्निग्धमरुचितं मांसाकुरैर्बृहत् ॥ तत्यजेद्वत्सरातीतं सुमहत्सुपरिस्रुति ॥ २१ ॥
और पित्तसे पीला और दाहयुक्त ज्वरयुक्त होजाता है || २० || और कफसे भारी स्निग्ध रोगरहित मांस अंकुरों से इकट्ठी हुई और बडी आकृतिवालाहो, जिसे झिरते हुए एक वर्षसे अधिक होगया है इन्होंको त्यागदेवे ॥ २१ ॥
पाणिना सौष्ठकर्णेषु वदन्त्येके तु पादवत् ॥
श्लीपद जायते तच्च देशेऽनूपे भृशं भृशम् ॥ २२ ॥
और हाथ होंठ कान इन्हों में भी पैर की समान होजाता है सो श्लीपद अनूपदेशमें अधिक हो जाते हैं ।। मेदःस्थाः कण्ठमन्याक्षकक्षावंक्षणगा मलाः॥ सवर्णान्कठिनास्निग्धान्वार्ता कामलकाकृतीन् ||२३|| अवगाढान्बहून्गण्डांश्चिरपाकांश्च कुर्वते ॥ पच्यन्तेऽल्परुजस्त्वन्ये स्रवन्त्यन्येतिक
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