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उत्तरस्थानं भाषाटीका समेतम् ।
( ९४७ )
और उत्तम कारुणी अर्थात् करंभकी जड पीलुपर्णीकी जड कुरंटाकी जड इन्होंको मिलाके ॥ ॥ २८ ॥ और लोध हरडै मुलहटी शतावरी चीता देवदार इन्होंसे तेल और दूधको सिद्धकर नस्यदेवे अथवा मालिशकरे तो अपचीरोग नष्टहोय ॥ २९ ॥
गोव्यजाश्वखुरादग्धाकटुतैलेन लेपनम् ॥
गुदेन तु कृष्णाहिर्वायसो वा स्वयं मृतः ॥ ३० ॥
और गौ बकरी घोडा इन्होंके खुरोंको फूंक तेलसे लेपकरे अथवा आपसे मरा कालसर्प अथवा कागको हिंगोटके रसमें पीस लगावे ॥ ३० ॥
इत्यशान्तौ गदस्यान्यपार्श्वजंघासमाश्रितम् ॥ बस्तर्ध्वमधस्ताद्वा मेदो हत्वाग्निना दहेत् ॥ ३१ ॥
: ऐसेभी रोगकी नहीं शांति होनेसे पसवाडा और जंघाके आश्रितरोगको बस्तिसे ऊपर अथवा नाचे मेद काटके अग्निसे सेंके ॥ ३१ ॥
स्थितस्योर्ध्वं पदं भरवा तन्मानेन च पाणितः ॥ तत ऊर्ध्वं हरेद्ग्रन्थीनित्याह भगवान्निमिः ॥ ३२ ॥ और खडे पुरुष के पैर को भेदनकरे तिसी प्रमाणसे एडीको भेदनकरै पश्चात् ग्रंथिको निकासलेने ऐसे निमि भगवान ने कहा है ॥ ३२ ॥
पाष्णि प्रति द्वादशचाङ्गुलानि मुक्तेन्द्रबस्ति च गदान्यपार्श्वे ॥ विदार्यमत्स्याण्डनिभानि मध्याज्जालानि कर्षेदिति सुश्रुतोक्तिः ३३ और एडीको बारह अंगुल खोलके इंद्रबस्तिको निकासे और पवाडों को फाडके बीच से मच्छीके अंडोंके समान जालरूप रोगों को निकास देवे यह सुश्रुतमें कहा है ॥ ३३ ॥ आगुल्फकर्णात्सुमितस्य जन्तोस्तस्याष्टभागं खुडकाद्विभज्य ॥ प्राणांजवेधः सुरराजबस्तेर्भिच्वाक्षमात्रं त्वपरे वदन्ति ॥ ३४ ॥ और गुल्फसे लेकर कानतक मितजंतुके खुडकसे आठवां भाग लेवे नासिकार्जवमें और इंद्रबस्ति के नीचे भेदकर अक्षमात्रको खँचे ॥ ३४ ॥
उपनाह्यानिलान्नाडी पाटितां साधु लेपयेत् ॥
प्रत्यक्पुष्पीफलयुतैस्तैलैः पिष्टैः ससैन्धवैः ॥ ३५ ॥
और वातकी नाडीको नाडीसे उपनाहसंज्ञक पसीना कराके और अच्छी तरह फाडके और फल सहित श्वेतऊंगा सेंधानमक इनसे तेलको सिद्धकर लेपकरे ॥ ३५ ॥
पैत्तीत तिलमञ्जिष्ठानागदन्तीशिलाह्वयैः ॥
पित्ती नाडीको तिल मँजीठ जमालगोटेकी जड मनशिल इन्होंसे मालिशकरे ||
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