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( ९२२)
अष्टाङ्गहृदये
'प्रायः सामान्यकम्र्मेदं वक्ष्यते तु पृथक्पृथक् ॥
घृष्ठे रुजं निगृह्याशु त्रणे चूर्णानि योजयेत् ॥ १४ ॥
घृष्टरूप
विशेषकरके यह सामान्य कर्म कहा, और पृथक पृथक् अर्थात् विशेषकरके कर्मको कहेंगें, घाव में प्रथम पीडाको उपशमनकर चूणों को योजितकरै ॥ १४ ॥ कल्कादीन्यवकृत्ते तु --
अवकृतरूप घावमें कल्क आदिको प्रयुक्तकरे ॥ विच्छिन्नप्रविलम्बिनोः ॥
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सौवनं विधिनोक्तेन बन्धनं चानुपीडनम् ॥ १५ ॥
विछिन्न घावमें और प्रविलंबी घाव में कही हुई विधिसे सीमन करना पीछे बंधन और पीउनको प्रयुक्तकरै ॥ १९ ॥
असाध्यं स्फुटितं नेत्रमदीर्ण लम्बते तु यत् ॥ सन्निवेश्य यथास्थानमव्याविद्धसिरं भिषक् ॥ १६ ॥ पीडयेत्पाणिना पद्मपलाशान्तरितेन तत् ॥
स्फुटितहुआ नेत्र असाध्यहै और नहीं स्फुटित हुआ जो नेत्र नहीं दीर्णहुआ लंबितहा जावे तिसको तिसीके स्थान में प्राप्तकर और जैसे शिरा बेधित न होसके तैसे वैद्य ॥ १६ ॥ कमलके पत्तों से अंतरित किये हाथसे पीडितकरै ||
ततोऽस्य सेचने नस्ये तर्पणे च हितं हविः ॥ १७ ॥ विपकमा यष्ट्याह्नजीवकर्षभकोत्पलैः ॥ सवयस्कैः परं तद्धि सर्वनेत्राभिघातजित् ॥ १८ ॥
पीछे इसको सेचनेमें और नस्य में और तर्पण में घृत हित है ॥ १७ ॥ परंतु मुलहटी जीवक ऋषभक कमल दूधमें पकाया हुआ बकरीका वृत अतिशय सब प्रकार के नेत्राभिवातों को जीतता है ॥ १८ ॥
गलपीडावसन्नेऽक्षिण वमनोत्क्लेशनक्षवाः ॥
'प्राणायामोऽथ वा कार्य्यः क्रिया च क्षतनेत्रवत् ॥ १९ ॥
गलमें पीडासे संयुक्तहुये नेत्रमें वमन उक्लेशन छींक अथवा प्राणायाम तथा क्षत नेत्रकी समान क्रिया ये सब हित हैं ॥ १९ ॥
कर्णे स्थानाच्युते स्यूते स्रोतस्तैलेन पूरयेत् ॥ स्थानमें भ्रष्टहुये तथा सीमेहुये कानमें तेलसे स्त्रोतको पूरितकरे ॥
काटिकायां छिन्नायां निर्गच्छत्यपि मारुते ॥ २० ॥ समं निवेश्य बनीयात्स्यत्वा शीघ्रं निरन्तरम् ॥
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