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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम्। (९२५) तत्रान्तोंहितं शीतपादोच्छासकराननम् ॥
रक्ताक्षं पाण्डुवदनमानद्धं च विवर्जयेत् ॥ ३७॥ तिन्होंमें भीतरको लोहूवाला और शीतलरूप पैर श्वास हाथ मुख इन्होंवाला और लाल नेत्रोंवाला और पांडुरूप मुखवाला अफारेसे संयुक्त व्रणवालाहो उसको व ॥ ३ ॥
आमाशयस्थे वमनं हितं पक्वाशयाश्रये ॥ विरेचनं निरूहं च निःस्नेहोष्णैविंशोधनैः ॥ ३८॥ आमाशयमें स्थितहुये रक्तमें वमन हितहै, और पक्काशयमें स्थितहुये रक्तमें जुलाब और स्नेहसे वर्जित और गरम और विशेषकरके शोधनरूप औषधोंसे निरूह बस्ती हितहै ॥ ३८॥
यवकोलकुलत्थानां रसैः स्नेहविवर्जितैः ॥
भुंजीतान्नं यवागू वा पिबेत्सैन्धवसंयुताम् ॥ ३९ ॥ जब बेर कुलथीके स्नेहसे वर्जित किये रसोंसे अन्नका भोजनकर, सेंधानमकसे संयुक्तकरी यत्रागूको पवि ॥ ३९॥ ___अतिनिस्रुतरक्तस्तु भिन्नकोष्ठः पिबेदसृक् ॥ अत्यन्त निकलाहुआ रक्तवाला और भिन्नकोष्टवाला मनुष्य रक्तको पावै ॥
किन्नभिन्नान्त्रभेदेन कोष्ठभेदो द्विधा स्मृतः॥४०॥ मूर्छादयोऽल्पाः प्रथमे द्वितीये त्वतिबाधकाः॥
क्लिन्नान्त्रः संशयी देही भिन्नान्त्रो नैव जीवति॥४१॥ औरक्लिन्नांत्र और भिन्नांत्र भेदसे कोष्ठभेद दो प्रकारका कहाहै ॥ ४० ॥ क्लिन्नांवमें मूर्छा आदि रोग कुछेक उपजतेहैं, भिन्नांत्रमें मूछ आदि रोग अत्यन्त पीडा करनेवाले उपजतेहैं, और क्लिन्नहुये आंतोंवाला और कोष्टभेदवाला मनुष्य जीवनेमें संशयवाला होता है, और भिन्नांत्र कोष्ठभेदवाला मनुष्य नहीं जीवताहे ॥ ४१ ॥
यथास्वमार्गमापन्ना यस्य विण्मूत्रमारुताः॥
व्युपद्रवः सभिन्नेऽपि कोष्ठे जीवत्यसंशयम् ॥४२॥ जिस मनुष्यके विष्ठा मूत्र वायु यथायोग्य मार्ग में प्राप्तहोवे और उपद्रवोंसे रहितहो ऐसा मनुष्य भिन्नहुये कोष्टमेंभी निश्चय जीवताहै ॥ ४२ ॥
अभिन्नमन्त्रं निष्कान्तं प्रवेश्यं न त्वतोऽन्यथा।
उत्पङ्किलशिरोग्रस्तं तदप्येके वदन्ति तु ॥४३॥ नहीं भिन्न हुई आंतको निकासके फिर प्रवेशकर, अन्यथा भिन्न कहाहै, कर्कोट शिर करके अस्त दुआ भिन्नरूप आंतभी प्रवेश करना योग्यहै ऐसे कितनेक वैद्य कहतेहैं ॥ ४३ ॥
प्रक्षाल्य पयसा दिग्धं तृणशोणितपांशुभिः॥ प्रवेशयेत्क्लुप्तनखो घृतेनाक्तं शनैःशनैः॥४४॥
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