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उत्तरस्थानं भाषादीकासमेतम् ।
( ९२३)
और छिन्नहुई क्रुकाटिका में और निकासते हुये वायुमे ॥ २० ॥ समान स्थापितकरके और सीमकर शीघ्र निरंतर बांधै ॥
आजेन सर्पिषा चात्र परिषेकः प्रशस्यते ॥ २१ ॥ उत्तानोऽन्नानि भुञ्जीत शयीत च सुयन्त्रितः ॥
और बकरी के द्रुतसे परिसेक श्रेष्ठ है ॥ २१ ॥ और सीधा ऊर्ध्वमुख भोजन करे और अच्छी तरह यंत्रित हुआ शयनकरै ॥
घातं शाखासु तिर्यक्स्थं गात्रे सम्यनिवेशिते ॥ २२ ॥ tar dear यानवाससा ॥ चर्मणा गोष्फणावन्धः कार्यश्चासंगते त्रणे ॥ २३ ॥
और शाखाओं में हतहुये रोगको और तिर्यक् स्थितहुये अच्छी तरह स्थापित किये शरीर में || ॥ २२ ॥ सीमकर धनरूप वस्त्र के द्वारा बेलिन बंवकरके बांधे और असंगत हुये वावमें चामकरके गोफणवन्ध करना योग्य है ॥ २३ ॥
पादौ विलम्बिमुकस्य प्रोक्ष्य नेत्रे च वारिणा ॥ प्रवेश्य वृषणौ सीव्येत्सेवन्या तुन्नसंज्ञया ॥ २४ ॥ कार्यश्च गोष्फणावन्धः कट्यामावेश्य पट्टकम् ॥ स्नेहसेकं न कुर्वीत तत्र यिति हि व्रणः ॥ २५ ॥ और विलंबित अंडकोशवोलके पैर और नेत्रों को पानीसे प्रोक्षितकर और कृपणोंको प्रवेशितकर तुन्नसंज्ञक रूईस सी ॥ २४ ॥ तथा कटी पडकको आवेशितकर गोफणाबंध करना योग्य हैं और स्नेहका सेक नहींकरे क्योंकि स्नेहके सेक करनेमें वाव हृदभावको प्राप्त होजाता है || २२ ||
कालानुसार्य्यगुर्वेलाजातीचन्दनपर्पटैः ॥
शिलादार्व्यमृतातुत्थैः सिद्धं तैलं च रोपणम् ॥ २६ ॥
सीमवृक्ष अगर इलायची चमेली चंदन पित्तपापडा शिलाजीत दारुहलदी गिलोय नीलाथोथा इन्होंसे सिद्धकिया तेल रोपण है ॥ २६ ॥
छिन्नां निःशेषतः शाखां दग्ध्वा तैलेन युक्तितः ॥ वनीयात्कोशवन्धेन ततो व्रणवदाचरेत् ॥ २७ ॥
शोषसे रहित कटी हुई शाखाको तेलसे युक्तिसे दग्धकर कोशबंध करके बाँधे, पीछे बाकी तरह चिकित्साकरे
२७ ॥
कार्य्या शल्याहृते विद्धे भङ्गाद्विदलिते क्रिया ॥ शिरसोऽपहृते शल्ये बालवर्ति प्रवेशयेत् ॥ २८ ॥ मस्तुलुङ्गे श्रुते क्रुद्धो हन्यादेनं चलोऽन्यथा ॥
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