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(८६६)
अष्टाङ्गहृदयेज्ञात्वावस्थान्तरं कुर्यात्सद्योत्रणविधि ततः॥६४॥ छिन्द्यानुढेऽधिकं मांसं नासोपान्ते च चर्मवत् ॥ सीव्येत्ततश्च सुश्लक्ष्णं हीनं संवर्द्धयेत्पुनः ॥६५॥ किसी मनुष्यकी नासिका छिन्न होगईहो तो जब वह बडी अवस्थाका १०।१२वर्षके समान होजाय तब उसे शुद्धकर॥१९॥उसके कटी नासिकाके समान कोई पत्ताकाटले फिर उसके बराबर कपोलकी त्वचादि लेकर कटी हुए नासिकाको खुर्चके वहांपर वह कपोलका ताजा टुकडा जोड दे और कपोलके व्रणको सीने योग्यहो तो सीयदे तथा नासिकापरभी सीनेयोग्यहो तो सीयदे और पत्ता बाँधदे और सुखपूर्वक भीतरके श्वासकी प्रवृत्तिके अर्थ भीतर नाडियोंको उत्क्षेपित करै ॥६०-६२ ।। पीछे कच्चे तेलसे सेचितकर और लाल चंदन मुलहटी रशोत और रक्तको स्थापित करनेवाले अन्य महीन चूरनोंसे अवचूर्णित करै ॥ ६३ ॥ पीछे शहद और घृतसे अभ्यक्त कियेको बांध विधिसे कहेहुए स्नेहको आचरित करै, पीछे अन्य अवस्थाको जानकर सद्योव्रणकी विधिको करै ॥६४ ॥ पाछे अंकुरित होजावे तब नासिकाके समीपमें चामको अधिक मांसको छेदितकरै, पीछे कोमल करके फिर सीमें, और हीनहुएको फिर बढावै ॥ १५ ॥
निवेशिते यथान्यासं सद्यश्छेदेऽप्ययं विधिः ॥ न्यासके अनुसार निवेशित करी नासिकामें और तत्काल छेदितहुई नासिकामें यही विधि है।
नाडीयोगाद्विनौष्ठस्य नासासन्धानवद्विधिः॥६६॥ और नाडीयोगके विना कटेहुए ओष्ठकीभी नासिकाके संधानके तुल्य विधिहै ।। ६६ ॥ इति वेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकाया
मुत्तरस्थाने अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
एकोनविंशोऽध्यायः। अथातो नासारोगविज्ञानीयमध्यायं व्याख्यास्यामः ॥ इसके अनंतर नासारोगविज्ञानीय नामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे ॥ अवश्यायानिलरजोभाषातिस्वानजागरैः ॥ नीचात्युच्चोपधानेनपीतेनान्येन वारिणा॥१॥ अत्यम्बुपानरमाणच्छर्दिवाष्पग्रहादिभिः॥कुद्धा वातोल्बणा दोषा नासाया स्त्यानता गता॥२॥ जनयन्ति प्रतिश्यायं वर्द्धमानं क्षयप्रदम् ॥ शीतलता वायु धूली अत्यंत बोलना अत्यंत शयन अत्यंत जागना इन्होंकरके नीचे और अत्यंत चे आदि गांडवोंके लगानेसे और अन्य देशके तथा नवीन पानी से।।१॥और अत्यंत पानीका पीना अत्यंत भोग छर्दि वाफोंका ग्रहण करना इन्होंसे कुपितहुए वातकी अधिकतवाले दोष नासिकामें घन भारको प्राप्त होके प्रतिश्याय अर्थात् पानसरोगको उपजातेहैं बढाहुआ यह रोग क्षयको देनेवालाहै।।
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