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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(८८३) प्रत्यास्यता च तैरेव दन्तकाष्ठादिविद्विषः॥ तिन वात आदि दोषोंसे दंतधावन आदिको नहीं सेवनेवाले मनुष्यके मुखमें दुर्गधपना उपजताहै
ओष्ठे गंडे द्विजे मूले जिह्वाया तालुके गले ॥६४॥ वक्के सर्वत्र चेत्युक्ताः पंचसप्ततिरामयाः॥ एकादशैको दश च त्रयोदश तथा च षट् ॥६५॥
अष्टावष्टादशाष्टौ च क्रमात् ॥ ओष्टमें, कपोलमें दंतोंमें दंतोंकी जडोंमें, जीभमें, तालुवेमें, गलेमें ॥ ६४ ॥ और मुखमें इन सबोंमें ७५ रोग कहे हैं, क्रमसे एकादश अर्थात् ११ और एक १ और दश १० और तेरह १३ और षट् ६ ॥ ६५ ॥ और आठ ८ और अठारह १८ और आठ ८ ऐसे क्रमसे जानने ।
तेष्वनुपक्रमाः॥करालौ मांसरक्तोष्ठावर्बुदानि जलाद्विना॥६६॥ कच्छपस्तालुपिटिका गलौघः सुषिरो महान् ॥ स्वरनोर्ध्वगदः श्यावः शतघ्नीवलयालसाः॥६७ ॥ नाड्योष्ठकोपोनिचयाद्रतात्सर्वैश्च रोहिणी ॥ दशने स्फुटिते दन्तभेदः पक्वोपजिह्विका ॥६८॥ गलगंडः स्वरभ्रंशः कृच्छ्राच्छ्रासोतिवत्सरः॥याप्यस्तु हर्षो भेदश्च शेषाञ्छस्त्रौषधैर्जयेत् ॥ ६९ ॥
और तिन मुखरोगोंमें ये वक्ष्यमाणरोग असाध्यहैं, कराल दंतरोग मांस और रक्तसे उपजे ओष्ठरोग और जलके बिना अर्बुदरोग ॥ ६६ ॥ कच्छप तालपिटिका गलौंध महासुषिर स्वरघ्न ऊर्ध्वगद श्यावरोग शतघ्नीरोग वलयरोग अलसरोग॥६७ ॥ सन्निपातसे उपजा उपोष्ठरोग रक्तसे और सब दोषोंसे उपजा रोहणीरोग और स्फुटितहुये दंतमें दंतभेद पकरूप उपजिहिका ॥ ६८ ॥ गलगंड स्वरभ्रंश ये सब और एक वर्षसे ज्यादे समयका कृच्छ्राच्छास असाध्यहै, और दंतहर्ष तथा दंतभेद कष्टसाध्यहै, और शेषरहे मुखके रोगोंको शस्त्र और औषधोंसे जीते ॥ ६९ ॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृऽताष्टांगहृदयसंहिताभाषा
टीकायामुत्तरस्थाने एकविंशोऽध्यायः ॥ २१॥
द्वाविंशोऽध्यायः॥ अथातो मुखरोगप्रतिषेधमध्यायं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतरमुखरोग प्रतिषेधनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे।
खण्डोष्ठस्य विलिख्यान्तौ स्यूत्वा व्रणवदाचरेत् ॥
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