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(८८२)
अष्टाङ्गहृदयेश्लेष्मरुद्धाऽनिलंगतिः शुष्ककण्ठो हतस्वरः॥
ताम्यन्प्रसक्तं श्वसिति येन स स्वरहानिलात् ॥ ५७ ॥ जब दुष्टहुए कफसे वायुकी गति रुकजातीहै तब सूखे कंठवाला और नष्टहुए स्वरसवाला मनुष्य होकर पीछे अंधेरीको प्राप्त होतेहुए अत्यन्त श्वासको लेताहै, यह स्वरन रोग वायुसे उपजताहै।॥१७॥
करोति वदनस्यान्तर्बणान्सर्वसरोऽनिलः ॥ सञ्चारिणोऽरुणाक्षानोष्टौ ताम्रौ चलत्वचौ ॥ ५८॥ जिह्वा शीतासहा गुर्वी स्फुटिता कण्टकाचिता ॥ .
विवृणोति च कृच्छ्रेण मुखपाको मुखस्य च ॥ ५९॥ ___ सब तर्फको विचरनेवाला वायु मुखके भीतर संचारवाले रक्त और रूखे घावोंको करताहै, और तांबेके समान तथा चलायमान त्वचावाले ओष्टोंको करताहै ॥ १८ ॥ शीतलपदार्थको नहीं सहनेवाली और भारी और स्फुटित और कांटोंसे व्याप्त हुई जीभ होजातीहै और यह रोगी कष्टसे मुखको आरछादित करताहै, वह मुखपाकरोग कहाहै ॥ ५९॥
अधः प्रतिहतो वायुरोगुल्मकफादिभिः ॥
यात्यूचं वक्रदोर्गन्ध्यं कुर्वन्नुवंगदस्तु सः॥ ६०॥ अर्श गुल्म कफ आदिसे नीचेको हतहुआ वायु ऊपरको गमन करताहै, और मुखमें दुर्गंधको उपजाताहै वह ऊर्ध्वगदनाम रोग कहाहै ।। ६० ॥
मुखस्य पित्तजे पाके दाहोषे तिक्तवक्रता॥ पित्तसे उपजे मुखपाकमें दाह और मुखमें तिक्तपना संताप उपजताहै ॥
क्षारोक्षितक्षतसमा व्रणास्तवच्च रक्तजे॥ ६१॥ और खारसे उक्षित घाव समान घाव होजातेहैं और रक्तसे उपजे मुखपाकमें भी ऐसेही लक्षण होतेहैं ॥ ६१ ॥
कफजे मधुरास्यत्वं कण्डूमत्पिच्छिला व्रणाः॥ कफसे उपजे मुखपाकमें मुखमें मधुरपना और खाजसे युक्त और पिच्छिल घाव होजातेहैं ।।
अन्तः कपोलमाश्रित्य श्यावपाण्डु कफोर्बुदम् ॥ ६२ ॥ कुर्यात्तत्पाटितं छिन्नं मृदितं च विवर्द्धते ॥ और बढाहुआ कफ कपोलके भीतर आश्रितहोकर धूम्रवर्ण तथा पांडु गांठको ।। ६२ ॥ करताहै तब पाटित छिन्न तथा मर्दित हुई वह गांठ बढतीहै ॥
मुखपाको भवेत्सास्त्रैः सर्वैः सर्वाकृतिर्मलैः ॥६३ ॥ और रक्तसहित वात आदि तीन दोषोंसे सब दोपोंके लक्षणोंवाला मुखपाक उपजताहै ॥३॥
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