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(८८६)
अष्टाङ्गहृदयेऔर स्नेहके सहित दशमूलके पानीके कुले हिलतेहुये दांतोंमें हितहैं ॥ १४ ॥ नीलाथोथा लोध पीपल त्रिफला लालचंदन नमकसे घर्षणकरे, और अवस्थाके अनुसार स्निग्धरूप नस्य और अन्नके प्रास आदि हितहैं ॥ १५॥
अधिदन्तकमालिप्तं यदा क्षारेण जर्जरम् ॥ कृमिदन्तमिवोत्पाट्य तद्वच्चोपचरेत्तदा ॥ १६ ॥
अनवस्थितरक्ते च दग्धे व्रण इव क्रिया ॥ जवाखारसे आलिप्ताकया अधिदंत जर्जर होजावे तब कृमिदंतकी तरह उत्पाटित कर तिसीकी तरह चिकित्साकरै॥१६॥ और अवनस्थित रक्तमें और दग्धहुईमें घावकी समान चिकित्सा करनी।।
अहिंसन्दन्तमूलानि दन्तेभ्यः शर्करां हरेत् ॥ १७ ॥
क्षारचूर्णैर्मधुयुतैस्ततश्च प्रतिसारयेत् ॥ और दंतोंकी जडोंको नहीं हिंसित करताहुआ वैद्य दंतोंसे शर्कराको हरै ।। १७ ॥ पीछे शहदसे संयुक्त किये खारोंके चूणों से प्रतिसारित करै ।। ___ कपालिकायामप्येवं हर्षोक्तं च समाचरेत् ॥१८॥ और कपालिकामेंभी ऐसेही दंतहर्षमें कहीहुई चिकित्साको करै ॥ १८ ॥
जयेद्विस्त्रावणैः स्विन्नमचलं कृमिदन्तकम् ॥ स्निग्धैश्चालेपगण्डूषनस्याहारैश्चलापहैः ॥ १९ ॥ गुडेन पूर्ण सुषिरं मधूच्छिष्टेन वा दहेत् ॥
सप्तच्छदार्कक्षीराभ्यां पूरणं कृमिशूलजित् ॥२०॥ नहीं हितलेहुये कृमिदन्तको स्वेदित कर पीछे विशेष कर झिरानेवाले औषधोंसे जीतै अथवा स्निग्धरूप आलेप नस्य गंडूष भोजन हितलेहुये दंतोंको नाशनेवाले औषधोंसे जीते ॥ १९ ॥ सुषिररोगको गुडसे पूरित कर अथवा मोंमसे परितकर पीछे दग्धकरै, और सातविण तथा आकके दूधोंसे पूर्ण करना कृमिशूलको नाशताहै ॥ २० ॥
हिंगूकटफलकासीससर्जिकाकुष्ठवेल्लजम् ॥
रजोरुजं जयत्याशु वस्त्रस्थं दशने धृतम् ॥ २१ ॥ हींग कायफल कसीस साजी कूठ वायविडंगके चूर्णको कपडेकी पोटलीमें अम्ल दंतोपै धारण करै तो तत्काल शूलका नाश होताहै ॥ २१॥
गण्डूंषं धारयेत्तैलमेभिरेव च साधितम् ॥ क्वाथैर्वा युक्तमरण्डद्विव्याघीभूकदम्बजैः ॥२२॥ इन्हीं औषधोंसे साधित किये तेलके गंडूषको धारै, अथवा अरंड दोनों कटेहली भूमिकदम्बके वाथोंसे साधित किये तेलके गंडूषको धारै ।। २२ ॥
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