________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (८९९)
त्रयोविंशोऽध्यायः। अथातः शिरोरोगविज्ञानं नामाध्यायं व्याख्यास्यामः। इसके अनंतर शिरोरोगविज्ञानीयनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे। धूमातपतुषाराम्बुक्रीडातिस्वप्नजागरैः॥उत्स्वेदाधिपुरोवातवाप्पनिग्रहरोदनैः ॥१॥ अत्यम्बुमद्यपानेन कृमिभिर्वेगधारणैः॥ उपधानमृजाभ्यङ्गद्वेषाधःप्रततेक्षणैः॥२॥ असात्म्यागन्धदुष्टामभाषायैश्च शिरोगताः॥ जनयन्त्यामयान्दोषांधूम घाम जाडा जलमें क्रीडा अत्यंत शयन अत्यंत जागना उग्रपसीना पेटके भीतरकी वायुको और भाफोंको रोकना रोना इन्होंकरके ॥ १॥ अत्यंत पानी तथा मदिराके पीनेकरके और कीडोंकरके तथा मूत्र आदि वेगोंके धारनेकरके और उपधान शुद्धि मालिस इन्होंके वैर करके और नीचेको निरंतर देखने करके ॥ २ ॥ अयोग्य गंध और दुष्ट आम और बोलने आदि करके शिरमें प्राप्तहुये दोष रोगोंको उपजातेहैं ॥ स्तत्र मारुतकोपतः॥३॥ निस्तुद्यते भृशं शंखौ घाटा सम्भिद्यते तथा ॥ भ्रुवोर्मध्यं ललाटं च पततीवानिवदनम् ॥४॥बाध्यते स्वनतः श्रोत्रे निष्कृष्यते इवाक्षिणी। घूर्णतीव शिरःसर्वं सन्धिभ्य इच मुच्यते॥५॥स्फुरत्यतिशिराजालं कन्दराहनु संग्रहः ॥प्रकाशासहता घ्राणस्त्रावोऽकस्माद्वयथाशमौ॥६॥ मार्दवंमर्दनस्नेहस्वेदबन्धैश्च जायते ॥ शिरस्तापोऽयम्-- तहां वायुके कोपसे ॥ ३ ॥ कनपटीमें अत्यंत चमकतीहै और भेदनहोताहै और भ्रुकुटियोंका मध्यभाग और मस्तक अत्यंत पीडासे संयुक्त होके पडनेकी तरह होजाताहै ॥ ४ ॥ और शब्दसे कान पीडित होतेहैं और निकसनेकी तरह नेत्र होजातेहैं और घूर्णितहुएकी समान और सब संघियोंसे छुटेकी समान शिर होजाताहै ॥ ५॥ और नाडियोंका जाल अत्यंत फुरताहै, और कंडरा तथा ठोडीका संग्रह होताहै, और प्रकाशको नहीं सहसकताहै, और नासिका बहतीहै, और निमित्तके बिना आपही कदाचित पीडा तथा कदाचित शांति होजातीहै ॥ ६ ॥ मर्दन स्नेह पसीनाबंधासे कोमलता उपजतीहै, यह शिरस्तापरोगहै ॥
अर्द्ध तु मूर्ध्नः सोऽ(वभेदकः॥७॥ पक्षात्कुप्यति मासाद्वा स्वयमेव च शाम्यति ॥ अतिवृद्धस्तु नयनं श्रवणं वा विनाशयेत् ॥८॥
For Private and Personal Use Only