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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । दोषैरधिष्ठितो दुष्टः शुद्धस्तैरनधिष्ठितः॥ निज और आगंतुज और दुष्ट तथा शुद्धभेदसे व्रण अर्थात् घाव दो प्रकारकाहै शरीरके दोषोंसे उपजा निज कहाताहै, और बाह्यकारणोंसे आगंतुक कहाताहै ॥ १ ॥ दोषोंकरके अधिष्ठित दुष्ट य हाताहै, और दोषोंकरके अधिष्ठित शुद्ध कहाताहै ॥
संवृतत्वं विवृतता काठिन्यं मृदुताऽपि वा ॥ २॥ अत्युत्सन्नावसन्नत्वमत्यौष्ण्यमतिशीतता॥रक्तत्वं पाण्डुता काष्ण्यं पूतिपूयपरिस्तुतिः॥३॥ पूतिमांसशिरास्नायुच्छन्नतोत्सङ्गितातिरुक् ॥ संरम्भदाहश्वयथुकंवादिभिरुपद्रुतिः॥४॥ दीर्घकालानुबन्धश्व विद्यादुष्टत्रणाकृतिम्॥ संवृतपना और फटजाना कठिनपना और कोमलपना ॥ २ ॥ अत्यन्त उत्सन्न अत्यन्त अवसन्नपना अत्यन्त उष्णपना, अत्यन्त शीतलपना पांडुपना कालापना और दुर्गंधित रादका झिरना ॥ ३ ॥ दुर्गधित मांस नाडी नससे आच्छादितपना और उत्संगपना और अत्यन्त पीडा संरंभ दाह शोजा खाज आदिसे व्याप्त ॥ ४ ॥ और दीर्घकालसे उपजे घावको दुष्ट घावके लक्षणोंवाला जानो।।
स पञ्चदशधा दोषैः सरक्तैःऔर रक्तसहित दोषोंसे व्रण पांच प्रकारकाहे ॥
तत्र मारुतात् ॥ ५॥ श्यावः कृष्णोऽरुणो भस्मकपोतास्थिनिभोऽपि च॥ मस्तुमांसपुलाकाम्बुतुल्यतन्वल्पसंखुतिः॥६॥
निर्मांसस्तोदभेदाढ्यो रूक्षश्चटचटायते ॥ तहां वायुसे ॥ ५ ॥ धूम्रवर्णवाला काला लाल और भस्म तथा कपोतकी हड्डीके समान आकृ. तिवाला दहीके पानी मांस पुलाकके पानीके तुल्य सूक्ष्म और अल्पगिरनेवाला ॥ ६ ॥ मांससे रहित चमका तथा भेदसे संयुक्त रूखा और चटचटकरतेहुएकी समान घाव होताहै ।।
पित्तेन क्षिप्रजः पीतो नीलः कपिलपिङ्गलः॥७॥ मूत्रकिंशुकभस्माम्बुतैलोऽम्भोष्णबहुश्रुतिः॥
माता ॥ क्षारोक्षितक्षतसमव्यथो रागोष्मपाकवान् ॥८॥ और पित्तसे शीघ्र उपजनेवाला पीला नीला धूम्रवर्णवाला और पिंगलरूप ॥ ७ ॥ गोमूत्र केशू भस्म पानी तेलके समान और उष्ण बहुतसे स्वावसे संयुक्त और खारसे उक्षित क्षतके समान पीडावाला और राग गरमाई पाकसे संयुक्त घाव होताहै ॥ ८ ॥
कफेन पाण्डुः कण्डूमान्बहुश्वेतघनश्रुतिः॥ स्थूलौष्ठः कठिनः स्नायशिराजालस्ततोऽल्परुक् ॥९॥
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