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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम्। (७९५) लालासिङ्घाणकस्रुतिः॥ अविपाकोऽरुचिर्मूर्छा कुक्ष्याटोपो बलक्षयः॥७॥निद्रानाशोऽडमर्दस्तृट् स्वप्ने पानं सनर्तनम्॥ पानं मद्यस्य तैलस्य तयोरेव च मेहनम् ॥८॥
और जब यह अपस्मार अर्थात् मृगीरोग उपजताहै, तब हृदयका कांपना शून्यता भ्रम तमका दर्शन ध्यान और भ्रुकुटियोंका ढलकना आंखोंकी विकृति॥ ६ ॥ शब्द न सुनना पसीनेका आना लार गिरै सिनकपडै अविपाक अरुचि मूर्छा कुक्षिका आटोप बलका क्षय ॥ ७ ॥ निद्राका नाश अंगडाई टूटना तृपा और स्वप्नमें गाना नाचना और मदिरा तथा तेलको पीवै और तिन्होंहीको मूतै ८
तत्र वातात्स्फुरत्सक्थि प्रपतंश्च मुहुर्मुहुः॥अपस्मारेति संज्ञां च लभते विस्वरं रुदन ॥९॥ उत्पिण्डिताक्षः श्वसिति फेनं वमति कम्पते ॥ आविध्यति शिरो दन्तान्दशत्याध्मातकन्धरः ॥१०॥ परितो विक्षिपत्यङ्गं विषमं विनतांगुलिः॥ रूक्षश्यावा रुणाक्षित्वङ्नखास्यः कृष्णमीक्षते ॥११॥ चपलं परुषं रूपं विरूपं विकृताननम् ॥
तहां वातसे उपजे अपस्मारमें सांथल फुरतीहै और बारंबार पडता फिरै, संज्ञा रहै नहीं स्वर विगडजावे रुदनकरै ॥ ९॥ और उग्र गोल नेत्र होजावे, श्वास लेवे, झाग गेरै, कांपै और शिरको ताडन करे, दांतोंको चाबे कंधेको कंपावै ॥ १० ॥ चारों तर्फ अंगोंको फेंकै और विषम तथा नयीहुई अंगुली होजावे और रूखारहै, लाल आंखिहोवें और त्वचा नख मुख ये काले दीख।११॥ और चपल तथा कठोररूप होवे, विरूप और विकराल मुख होतेहैं ।
अपस्मरति पित्तन मुहुः संज्ञां च विन्दति ॥१२॥ पीतफेना क्षिवक्रत्वगास्फालयति मेदिनीम् ॥ भैरवादीप्तरुषितरूपदर्शी तृषान्वितः॥१३॥
और पित्तके अपस्मारमें बारंबार संज्ञाको प्राप्तहोजावै ॥ १२ ॥ और पीले झाग गिरे नेत्र त्वचा मुख ये पीले होजावै और पृथ्वीको खोदै और भयानक दीप्त रूखा रूपहोजावे तृषासे युक्तहोवे।।१३॥
कफाञ्चिरेण ग्रहणंचिरेणैव विबोधनम्॥चेष्टाऽल्पा भूयसी लाला शुक्लनेत्रनखास्यता ॥१४॥ शुक्लाभरूपदर्शित्वं सर्वलिङ्गंतु वर्जयेत् ॥
और कफसे उपजे अपस्मारमें बहुतकालमें तो रोगसे ग्रसितहो और बहुतही देरमें रोगसे छूटै और अल्प चेष्टा होवे राल ज्यादे गिरै, और नेत्र नख मुख ये सफेद होजावें ॥ १४ ॥ और सफेद कांति होजावे और यह सफेदही रूप देखे ये लक्षण हैं ।
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