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(८५६)
अष्टाङ्गहृदयेवायुकरके शोषितहुआ कफ स्रोतोंको लेपितकरता है तिस कारणसे तिस कानमें शूल भारीपना और आच्छादितपना ये होतेहैं यह प्रतीनाहसंज्ञक रोगहै ॥ ११ ॥
कण्डूशोफौ कफाच्छाने स्थिरौ तत्संज्ञया स्मृतौ ॥ कफसे कानमें खाज और शोजा स्थित रहताहै, तिसवास्ते कर्णकंडु और कर्णशोफ दो रोग कहेहैं ।
कफो विदग्धः पित्तेन सरजं नीरज त्वपि ॥१२॥
घनपूतिबहुक्लेदं कुरुते पूतिकर्णकम् ॥ पित्तकरके विदग्धहुआ कफ पीडासे सहित अथवा पीडासे रहित ॥ १२ ॥ और करडे तथा दुर्गंधित बहुतसे क्लेदसे संयुक्त पूतिकर्णक रोगको करताहै ॥ - वातादिदूषितं श्रोत्रं मांसासृक्क्लेदजां रुजम् ॥ १३॥
खादन्तो जन्तवः कुर्युस्तीवांस कृमिकर्णकः॥ और वात आदिकरके दूषित कानको खातेहुए कीडे मांस रक्तक्लेदसे उपजी ॥ १३ ॥ तीव्र पीडाको करतेहैं वह कृमिकर्णक रोग कहाताहै ॥ ...
श्रोत्रकण्डूयनाजाते क्षते स्यात्पूर्वलक्षणः॥१४॥ और कानके खुजानेसे उपजे घावमें पूर्वोक्त लक्षणे। वाला ॥ १४ ॥ विद्रधिः पूर्ववच्चान्यः शोफोऽशोऽर्बुदमीरितम् ॥
तेषु रुक्पूतिकर्णत्वं बधिरत्वं च बाधते ॥१५॥ विधि उपजताहै, और पूर्वोक्तको समान अन्य शोजा उपजताहै, और कर्णार्श और कर्णार्बुद ये भी होतेहैं, परंतु अर्श और अर्बुदके लक्षण जैसे पहिले कहचुकेहैं तैसेही यहांहै इन्होंमें शूल और दुर्गंधित कान और बधिरपना ये पीडा देतेहैं ॥ १५ ॥
गर्भेऽनिलात्संकुचिता शष्कुली कुचिकर्णकः॥
एको नीरुगनेको वा गर्भे मांसांकुरः स्थिरः॥ १६ ॥ वायुकरके भीतर शष्कुली संकुचित होजातीहै यह कुचिकर्णक रोग कहाताहै कानके भीतर शूलसे रहित एक अथवा अनेक और स्थिररूप होय तो मांसांकुर कहाताहै ॥ १६ ॥
पिप्पली पिप्पलीमानः सन्निपाताद्विदारिका॥ सवर्णः सरुजः स्तब्धः श्वयथुः स उपेक्षितः॥१७॥ कटुतैलनिभं पक्कः स्त्रवेत्कृच्छ्रेण रोहति ॥
सङ्कोचयति रूढा च सा ध्रुवं कर्णशष्कुलीम् ॥१८॥ पीपलके समान कर्णपिप्पलीरोग कहाहै और सन्निपातसे विदारका रोग उपजता है वर्णक समान और पीडासे संयुक्त और स्तब्ध शोजा नहीं चिकित्सित कियाजावे ॥ १७ ॥ तब पक्कहुए
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