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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम्। और प्रमादसे नहीं चिकित्सित किया अधिमंथ हताधिमंथ कहाताहै तिस करके अनेकप्रकारकी पीडा उपजतीहै और नेत्रमें दृष्टीको नाशनेवाला घाव उपजताहै ॥ ५ ॥
मन्याक्षिशंखतो वायुरन्यतो वा प्रवर्तयेत् ॥ व्यथां तीव्रामपैच्छिल्यरागशोफ विलोचनम् ॥ ६॥
सङ्कोचयति पर्यश्रु सोऽन्यतो वातसंज्ञितः॥ कंधा नेत्र कनपटीसे अथवा अन्यसे तीव्र पीडाको वायु प्रवृत्त करताहै और पिच्छिलपना राग शोजासे संयुक्त हुये नेत्रको ॥ ६ ॥ संकुचित करताहै और अश्रुओंकरके व्याप्त होजाताहै वह अन्यतो वातसंज्ञक कहाहै ॥ - तद्वन्नेत्रं भवेजिह्ममनवातविपर्यये ॥७॥ और वातके विपर्ययमें कुटिल और हीन ऐसे नेत्र अन्यतो वातकी समान होजातेहैं ॥ ७ ॥
दाहो धूमायनं शोफः श्यावता वर्त्मनो वहिः॥ अन्तःक्लेदोऽश्रुपीतोष्णं रागः पीताभदर्शनम् ॥ ८॥
क्षारोक्षितक्षताक्षित्वं पित्ताभिष्यन्दलक्षणम् ॥ दाह धूवांपना शोजा वर्मके बाहिर धूम्रवर्णता और भीतरको क्लेद पीला और गरम आंशु राग और पीलेके सदृश देखना ॥ ८ ॥ क्षार करके उक्षित और क्षतहुआ नेत्र ये पित्तके अभिस्यदके लक्षणहैं ।
ज्वलदङ्गारकीर्णाभं यकृत्पिण्डसमप्रभम् ॥९॥ और जलतेहुये अंगारके समान कांतिवाला और यकृत्के पिंडके समान कांतिवाला ॥ ९ ॥ अधिमन्थे भवेन्नेत्रं स्यन्दे तु कफसम्भव॥जाड्यं शोफो महान्कण्डनिद्रान्नानभिनन्दनम् ॥ १०॥ सान्द्रस्निग्धबहुश्वेतपिच्छावदूषिकाश्रुता॥अधिमन्थे नतं कृष्णमुन्नतं शुकुमण्डलम्।। ॥ ११॥ प्रसेको नासिकाध्मानं पांशुपूर्णमिवेक्षणम् ॥ नेत्र अधिमंथ रोगमें होजाताहै और कफके अभिस्यंदमें जडपना अत्यंत शोजा नींद अन्नमें भरुची ॥ १० ॥ और करडी चिकनी और बहुत और श्वेत तथा पिच्छासे संयुक्त ढोढ और आंशु और अधिमंथमें कृष्णमंडल नयाहुआ और श्वेतमंडल नयाहुआ उन्नतहुआ ॥११॥ प्रसेक नासिकापै अफारा और धूलीकरके पूरितहुयेकी तरह नेत्र होजातेहैं ।।
रक्ताश्रुराजीदूषीकशुक्लमण्डलदर्शनम्॥१२॥
रक्तस्यन्देन नयनं स्यात्पित्तस्यन्दलक्षणम् ॥ और रक्तरूप आंशूपंक्ति ढीढ शुक्लमंडल देखना ॥ १२॥ और पित्तके अभिस्यंदके सब लक्षण इन्होंसे संयुक्तहुये नेत्र रक्तके अभिस्यंदसे होतेहैं ।
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