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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(८२३)
रक्तेन तिमिरे रक्तं तमोभूतं च पश्यति ॥ २० ॥ काचेन रक्ता कृष्णा वा दृष्टिस्तादृक्च पश्यति ॥ लिङ्गनाशेऽपि तादृग्दृङ् निष्प्रभा हतदर्शना ॥ २१ ॥
और रक्तसे उपजे तिमिररोग में रक्त के समान और अंधेरेकी समान देखता है ॥ २० ॥ काचकरके रक्त अथवा कृष्ण दृष्टी होजाती है, रक्त और कृष्णकोही देखता है और लिंगनाशमें भी ऐसी ही दृष्टि होती है, परंतु कांतिसे वर्जित और नष्टहुये दर्शनोंवाली कही है ॥ २१ ॥ संसर्गसन्निपातेषु विद्यात्सङ्कीर्णलक्षणान् ॥ तिमिरादीनकस्माच्च तैः स्याद्वयक्ताकुलेक्षणम् ॥ २२ ॥ तिमिरे शेषयोर्दृष्टो चित्रो रागः प्रजायते ॥
संसर्ग और सन्निपातसे उपजे तिमिर आदि रोगोंको मिश्रित लक्षणोंवाले जानो और निमित्तके विना तिन संसर्ग और सन्निपातोंकर के स्पष्ट अकस्मात् आकुल दर्शन होता है ॥ २२ ॥ ऐसा मनुष्य तिमिररोग में होता है, और शेपर हे काचरोग में और लिंगनाशमें दृष्टिके विचित्ररूप राग उपजता है ||
द्योत्यते नकुलस्येव यस्य दृङ् निचिता मलैः ॥ २३ ॥ नकुलान्धः स तत्राह्नि चित्रं पश्यति जो निशि ॥
और जिस रोगीके दोषों से व्याप्तहुई दृष्टी नकुलकी समान प्रकाशित होवे ॥ २३ ॥ वह नकुलांब कहाता है तहां दिनमें चित्ररूप दीखता है, रात्री में नहीं ॥
अर्केऽस्तमस्तकन्यस्तगभस्तौ स्तम्भमागताः ॥ २४ ॥ स्थगयन्ति दृशं दोषा दोषान्धः सगदोपरः ॥ दिवाकरकरस्पृष्टा भ्रष्टा दृष्टिपथान्मलाः ॥ २५ ॥ विलीनलीना यच्छन्ति व्यक्तमत्राह्निदर्शनम् ॥
और अस्ताचलपर्वतके मस्तक में सूर्यके विश्रामकरने में स्तंभको प्राप्तहुये ॥ २४ ॥ दोष दृष्टिको आच्छादित करते हैं, यह दोषांध अर्थात् रातोंधा रोग है और सूर्य की किरणोंसे स्पृष्टहुये और दृष्टि के मार्गसे भ्रष्ट हुये || २५ || और विलीनसे लनिहुये दोष दिनमें स्पष्ट दर्शनको देते हैं | उष्णततस्य सहसा शीतवारिनिमज्जनात् ॥ २६ ॥ त्रिदोषरक्तसंपृक्तो यात्युष्मोर्ध्वं ततोऽक्षिणि ॥ दाहोषे मलिनं शुक्लम हन्याविलदर्शनम् ॥ २७ ॥ रात्रावान्ध्यं च जायेत विदग्धोष्णेन सा स्मृता ॥
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