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(८२८)
अष्टाङ्गहृदये
मिरच और सेंधानमक दो भाग पीपल और समुद्रझाग दोभाग सुरमा ९ भाग इन्होंका चित्रानक्षत्रमें किया चूर्ण कफके रोगको जीतताहै ॥ २५ ॥
द्राक्षामृणालीस्वरसे क्षीरमद्यवसासु च ॥ पृथक् दिव्याप्सु स्रोतोजं सप्तकृत्वो निषेचयेत् ॥ २६ ॥ तच्चूर्णितं स्थितं शंखे दृक्प्रसादनमंजनम् ॥
शस्तं सर्वाक्षिरोगेषु विदेहपतिनिम्मितम् ॥ २७॥ दाख और कमलकी नालीके स्वरसमें और दूध मदिरा वसा इन्होंमें और दिव्य पानियोंमें पृथक सातबार सुरमेको सेचितकरै ॥ २६ ॥ तिस चूर्णको शंखमें स्थितकरके धरै यह अंजन दृष्टिको • साफ करताहै और सब प्रकारके नेत्ररोगोंमें यह विदेहदेशके राजाने रचाह ॥ २७ ॥
निर्दग्धं बादराङ्गारैस्तुत्थं चेत्थं निषेचितम् ॥ क्रमादजापयः सर्पिः क्षौद्रं तस्मात्पलद्वयम् ॥ २८॥ कर्षिकैस्ताप्यमरिचस्रो तोजकटुकानतैः॥पटुरोधशिलापथ्याकणैलांजनफेनिकैः॥२९॥ युक्तं पलेन यष्टयाश्च मूपान्ततिचूर्णितम् ॥ हन्ति काचार्मनक्तान्ध्यरक्तराजीः सुशीलितः॥३०॥ चूर्णो विशेषात्तिमिरं भास्करो भास्करो यथा ॥ ऐसे पहिलेकी तरह क्रमसे बकरीका दूध घृत शहदमें सेचितकिया और बडवेरीके कोयलोंमें दग्ध किया नालाथोथा ८ तोल ॥२८॥और एक एक तोले प्रमाणसे सोनामाखी मिरच सुरमा कुटकी तगर नमक लोध कपूर हरडै पोपल इलायची रसोत समुद्रझाग ॥ २९॥ और चार तोले मुलहटीको मूषायंत्रके भीतर स्थापितकर दग्धकरै, अभ्यस्त किया यह काच अर्म नक्तांध्य रक्तराजीको नाशताहै ॥ ३० ॥ यह भास्करचूर्ण विशेषकरके तिमिररोगको नाशताहै जैसे अंधेरेको सूर्य ॥
त्रिंशद्भागा भुजङ्गस्य गन्धपाषाणपञ्चकम् ॥३१॥ शिल्वतालकयोद्वौ द्वौ वङ्गस्यैकोऽञ्जनात्रयम् ॥
अन्धमूषीकृतं धमातं पक्कं विमलमंजनम् ॥
तिमिरान्तकरं लोके द्वितीय इव भास्करः॥३२॥ और सीसा ३० भाग गंधक पांचभाग ॥ ३१ ॥ तांबा और हरताल दो दोभाग और रांग एकभाग और सुरमा तीनभाग इन्होंको अंधभूपायंत्रमें स्थापितकरके पकावै, यह मैलको दूर करनेवाला अंजनहै, यह तिमिरको नाशताहै और संसारमें मानो दूसरा सूर्यहै ॥ ३२ ॥
गोमूत्रे छगणरसेऽम्लकांजिके च स्त्रीस्तन्ये हविषि विषे चमाक्षिके च ॥ यत्तुत्थं ज्वलितमनेकशो निषिक्तं तत्कुर्याद्गरुडसमं नरस्य चक्षुः॥३३॥
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