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(८२२)
अष्टाङ्गहृदयेयह लिंगनाश रोग कहाताहै और वायुके सामान्यपनेसे दृष्टिकी शिराओंको संकुचित करताहै और दृष्टिका मंडल भीतरको प्रवेश करजाताहै, यह गंभीरा दृष्टि कहीहै ॥ १२ ॥
पित्तजे तिमिरे विद्युत्खद्योतोदयोतदीपितम् ॥ शिखितित्तिरि पिच्छाभं प्रायो नीलं च पश्यति ॥ १३ ॥ काचे दृकाचनीलाभा तादृगेव च पश्यति॥ अर्केन्दुपरिवेषाग्निमरीचीन्द्रधनूंषि च॥१४॥ भृङ्गनीला निरालोका दृक्निग्धा लिङ्गनाशतः॥ष्टिः पित्तेन ह्रस्वाख्या सा ह्रस्वा ह्रस्वदर्शना ॥१५॥ भवेत्पित्तविदः ग्धाख्या पीता पीताभदर्शना॥ पित्तसे उपजे तिमिररोगमें बिजली और पटवीजना आदिकरके प्रकाशित और दीपित मोर और तीतरके पांखके समान कांतिवाला और विशेषकरके नीला देखता है ॥ १३ ॥ कांचरोगमें कांचक समान नीली कांतिवाली दृष्टि होजातीहै और कीचके समान नीलेपनेकोही देखताहै और सूर्य तथा चंद्रमाका मंडल अग्नि किरण इन्द्रका धनुष इन्होंको देखताहै ॥ १४ ॥ लिंगनाशसे भौंराके समान नीली और देखनेसे वर्जित और चिकनी ऐसी दृष्टी होजातीहै, और पित्तसे ह्रस्वसंज्ञावाली और ह्रस्व संस्थानवाली और हस्व दर्शनवाली दृष्टि होजाती है ।। १५ ॥ पित्तसे विदग्ध संज्ञावाली दृष्टि और पीलके समान देखनेवाली होतीहै ॥
कफेन तिमिरे प्रायः स्निग्धं श्वेतं च पश्यति ॥१६॥ शंखेन्दुकु. न्दकुसुमैः कुमुदैरिव चाचितम्॥काचेतु निष्प्रभेन्द्रकप्रदीपायैरिवाचितम् ॥१७॥ सिताभासा च दृष्टिःस्याल्लिङ्गानाशे तु लक्ष्यते ॥ मूर्तः कफो दृष्टिगतः स्निग्धो दर्शननाशनः॥१८॥ वि. न्दुर्जलस्येव चलः पद्मिनीपुटसंस्थितः॥ उष्णे सङ्कोचमायाति च्छायायां परिसर्पति ॥ १९॥शंखकुन्देन्दुकुमुदस्फटिकोपमशक्किमा ॥
और कफसे उपजे तिमिररोगमें विशेष स्निग्ध और श्वेतको देखताहै ॥ १६ ॥ और शंख चंद्रमा कुंदका फूल कुमोदनीकी समान व्याप्तहुयेसा देखताहै और काचरोगमें कांतिसे वार्जत सूर्य और दीपक आदिसे व्याप्त हुयेकी समान देखताहै ॥ १७ ॥ और सफेद कांतिवाली दृष्टि होजातीहै और लिंगनाशमें मूर्तरूप और स्निग्ध और दर्शनको नाशनेवाला दृष्टि प्राप्तहुआ कफ लक्षित होताहै ॥ १८ ॥ जलकी तरह बिंदुरूप और चलायमान और पद्मिनीपुटमें संस्थित और घाममें संकुचित होनेवाली और छायामें फैलनेवाली बूंद होतीहै ॥ १९ ॥ परंतु शंख चंद्रमा कुमोदिनी गिलोरी पत्थरके समान शुक्लतासे संयुक्त होतीहै ।।
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