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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । शुकहर्षशिरोत्पातपिष्टकग्रथितार्जुनम् ॥
साधयेदौषधैः षट्कं शेषं शस्त्रेण सप्तकम् ॥ २० ॥ और शुद्धपना हर्ष शिरोत्पात पिष्टक ग्रथित अर्जुन इन छह रोगोंका इलाज औषधोंकरके करै और बाकी रहे सात रोगोंको शस्त्रकरके साधनकरै ॥ २० ॥
नवोत्थं तदपि द्रव्यैरोक्तं यच्च पञ्चधा ॥
तच्छेद्यमसितप्राप्तं मांसस्त्रावशिरावृतम् ॥२१॥ और नवीन उठेहुये तिन सात रोगोंको औषधोंकरके साधितकरै और जो पांच प्रकारका अर्म कहाहै वह छेदन करनेको योग्यहै और काली पुतलीमें प्राप्तहुआ रोग और मांस शिरा इन्होंसे संयुक्त ॥ २१ ॥
चर्मोदालवदुच्छ्रायि बुष्टिप्राप्तं च वर्जयेत् ॥ और चर्मकी फूकनी आदिकी तरह ऊपरको बढताहुआ हो जो दृष्टिमें प्राप्तहो ऐसा रोग वार्जत अर्थात् असाध्यहै ॥
पित्तं कृष्णेऽथवा दृष्टौ शुक्र तोदाश्रुरागवत् ॥२२॥ छित्त्वात्व चंजनयति तेन स्यात्कृष्णमण्डलम्॥पक्कजम्बूनिभं किञ्चिन्नि नं च क्षतशुक्रकम् ॥२३॥ तत्कृच्छ्रसाध्यं याप्यं तु द्वितीयपट लव्यधात् ॥ तत्र तोदादिवाहुल्यं सूचिविद्धाभकृष्णता॥२४॥ तृतीयपटलच्छेदादसाध्यं निचितं व्रणैः ॥
और पित्त कालेभागमें अथवा दृष्टिमें चभका अश्रु रागसे युक्त फूलेको करदेताहै ।।२२॥ त्वचा अर्थात् प्रथम पटलको छेदनकरके कालेमंडलको करदेताहै और पकीहुई जामनके समान किंचित् डूंघा क्षत शुक्र अर्थात् फूला होजाताहै ॥ २३ ॥ वह कृच्छ्रसाध्य कहाताहै और दूसरे पटलका व्यध होजानेसे यह रोग याप्यहै और तहां तोद आदिक पीडा और सूईसे वाधासरीखा कालामंडल होजाताहै ॥२४॥ और तृतीयपटलके छेदन होनेसे व्रणोंसे संचित और असाध्य शुक्र होजाताहै ॥
शंखशुक् कफाच्छ्यावं. नातिरुक्षुद्धशुक्रकम् ॥ २५ ॥ और शंखके समान सफेद और श्यामवर्णवाला हो पीडा नहीं हो वह शुद्धशुक्र कहाताहै यह कफसे उपजताहै ॥ २५ ॥
आताम्रपिच्छिलास्रस्रदाताम्रपिटिकातिरुक् ॥
अजाविट्सदृशोच्छ्रायकायावासृजाजका ॥ २६ ॥ और जो तांबा सरीखा और झागोंवाला रुचिर झिरताहो, वह आताम्रपिच्छिलास्त्रनुत् फूला कहाताहै, और जो बकरीके कछुक मींगनीके समान ऊंचा और कालासाहो वह रक्तकरके अजका होतीहै वह वर्जितहै ॥ २६ ॥
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